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ज्वार के किट एवं प्रबंधन

ज्वार के किट एवं प्रबंधन

ज्वार के कीट एवं प्रबंधन

कीट एवं रोग प्रबंधन ज्वार की फसल में अनेक कीट एवं रोग लगते हैं, जो कसल की उपज वृद्धि उ और टिकाउपन में एक ए प्रमुख समस्या है। इस फसल को कीटों तथा रोगों से काफी नुकसान पहुंचता है जिससे इसकी पैदावार में काफी कमी हो जाती है। यदि समय रहते इन रोगों और कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो ज्यार की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। तना मक्खी, तना छेदक, पर्ण फुदका, दाना मिज, बालदार सुंडी और माहू ज्वार के मुख्य नाशी कीट, जबकि दाने का कंडवा रोग, अर्गट, ज्वार का किट्ट, मूल विगलन और मृदुरोमिल आसिता ज्वार के मुख्य रोग हैं। ज्वार के किट एवं प्रबंधन से जुड़ी जानकारी के लिए आगे पढ़ें।

कीट रोकथाम :– तना छेदकदृ इसकी गिडार या सुंडियां छोटे पौधों की गोफ को काट देती है जिससे गोफ सूख जाती है। इसका प्रभाव बुवाई के 15 दिन बाद से आरंभ होकर फसल में भुट्टे आने के समय तक होता है। पौधे की बढ़वार के साथ ही ये तने में सुरंग सी बना लेती है तथा अन्दर ही अन्दर तने के मुलायम हिस्सों को खाती है जिसके परिणामस्वरूप पौधे के वृद्धि भाग की मृत्यु हो जाती है, जिसे डैड-हर्टस के नाम से जाना जाता है।

रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए बुवाई के 25 दिनों बाद कार्बोफ्युरॉन (3) प्रतिशत) दानेदार कीटनाशक 7.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए और 10 दिनों के बाद दूसरा बुरकाव इसी मात्रा में पौधों की गोफ में करना चाहिए।

पर्ण फुदका (पाइरिला) :- इस कीट का आक्रमण बेमौसम एवं पेड़ी ज्वार में अधिक पाया गया है। यह कीट पौधों की पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुंचाता है, जिससे पौधों का हरापन कम हो जाता है एवं पौधे सूख जाते हैं।

रोकथाम :– इस कीट का नियंत्रण सामान्यतया स्वयं ही हो जाता है। अधिक आक्रमण होने पर मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्ल्यू एस सी कीटनाशी की 1 लीटर दवा का 600 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

तना मक्खी :- यह ज्वार का एक प्रमुख कीट हैद्य इसका प्रकोप पौधों के जमाव के लगभग 7 दिन बाद से 30 दिन तक होता है। कीट की इल्लियां उगते हुए पौधों की गोफ को काट देती हैं, जिससे शुरू की अवस्था में ही पौधे सूख जाते हैं। कुछ पौधों की गोफ सूख जाने के बाद भी कल्ले निकलते हैं, पर उनमें भुट्टे देर से आते हैं तथा उनका आकार भी छोटा होता है।

रोकथाम :- इसके रोकथाम के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 जी या फोरेट 10 जी बुवाई के समय 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ों में डालना चाहिए। यह कीटनाशक पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित होकर पौधों में पहुंचता है एवं ऐसे पौधों को खाने के बाद गिडारें मर जाती है।

ज्वार का मिज :- यह देश के दक्षिणी राज्यों जैसे- महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में ज्वार की फसल को हानि पहुंचाने वाला मुख्य कीट है। यह कीट ज्वार में भुट्टे निकलने के समय फसल को नुकसान पहुंचाता है।

रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए कार्बारिल 50 डब्ल्यू पी या कार्बारिल 3 डी कीटनाशक का ज्वार में भुट्टे निकलते समय 4 से 5 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए।

ज्वार का माइट :- यह बहुत ही छोटा कीट होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्हीं के अन्दर रहकर पत्तियों से रस चूसता है। ग्रसित पत्ती लाल रंग की हो जाती हैं तथा बाद में सूख जाती है। रोकथाम :- इसकी रोकथाम अन्य कीटों की रोकथाम के साथ स्वतः ही हो जाती है।

बालदार सुंडी :- यह कीट विभिन्न फसलों को नुकसान पहुंचाता है। इस कीट के शरीर पर घने बाल होने के कारण इस कीट को बालदार सुंडी कहा जाता है। इस कीट की छोटी-छोटी सूंडी पौधे की मुलायम पत्तियों को खा जाती है, जिससे पौधे की पत्तियों पर केवल शिरायें ही शेष बचती हैं।

रोकथाम :- इस कीट की रोकथाम के लिए फोलीडोल 2 प्रतिशत धूल का 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या थायोडान (35 ई सी) का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

माहू (एफिड) :- इस कीट के शिशु और वयस्क पौधों का रस चूसते रहते हैं, जिससे पौधों की पत्तियों के किनारे पर पीली-नीली धारियां दिखाई पड़ती है। इस कीट के प्रकोप से तरल द्रव बनने लगता है, जिससे फसल पर फंफूदी का आक्रमण होने लगता है तथा दाने की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टॉक्स 25 ई सी की एक लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

पक्षी :- ज्वार की फसल को भुट्टे लगने के समय से लेकर कटाई तक चिड़ियों से भी बहुत नुकसान पहुंचता है। इसलिए फसल को नुकसान से बचाने के लिए चिड़ियों से रखवाली करना भी बहुत आवश्यक है।

दाने का कंड (स्मट):- यह ज्वार का सबसे हानिकारक कवक जनित रोग है। इसका प्रकोप पौधों में भुट्टे निकलते समय होता है। यह मुख्यतः बीज द्वारा फैलता है। इस कवक के बीजाणु अंकुरण के समय जड़ों द्वारा पौधों में प्रवेश कर जाते हैं। पौधों में मुझे आने पर दानों की जगह कवक के काले बीजाणु भर जाते हैं। बीजाणु बाहर से एक कड़ी झिल्लीदार परत से ढके रहते हैं जिसके फटने पर वे बाहर आकर फैल जाते

रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए बीज को किसी कवकनाशी दवा जैसे केप्टान या वीटावैक्स पावर से 25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करें।

अर्गट :- संकर ज्वार में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस बीमारी के बीजाणु हवा द्वारा फैलते हैं और बीमारी का प्रकोप फसल में फूल आने के समय होता है। पुष्प शाखा पर स्थित स्पाइकिल से हल्के गुलाबी रंग का गाढा व चिपचिपा शहद जैसा पदार्थ निकलता है, जो मनुष्य और पशुओं दोनों के लिए हानिकारक होता है।

रोकथाम :- अर्गट रोग से ग्रसित भुट्टों को काटकर जला देना चाहिए। भुट्टों में दाना बनने की अवस्था पर थिरम 02 प्रतिशत के 2 से 3 छिड़काव करके रोग के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

ज्वार का किट्ट :- यह भी एक कवक जनित रोग है, इस रोग का असर पहले पौधे की निचली पत्तियों पर दिखाई पड़ता है तथा बाद में ऊपर की पत्तियों पर भी फैल जाता है। पत्तियों पर लाल या बैंगनी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं एवं पत्तियां समय सेपहले ही सूख जाती हैं। ज्वार के किट एवं प्रबंधन से जुड़ी जानकारी के लिए आगे पढ़ें।

रोकथाम :- किट्ट रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए तथा पौधों पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर डाइथेन एम-45 (62%) नामक कवकनाशी का 10 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए।

जड़ विगलन :- ज्वार की फसल में यह रोग कवक द्वारा फैलता है। यह बीमारी मिटटी एवं बीज दोनों के द्वारा फैलती है परन्तु मिटटी द्वारा यह बीमारी मुख्य रूप से फैलती है। फसल में बीमारी के लक्षण बुवाई के 30 से 35 दिन बाद दिखाई देते हैं। रोगग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है पत्तियां मुड़ जाती हैं और पुरानी पत्तियों का ऊपरी भाग पीला पड़ जाता है। बीमारी का प्रकोप अधिक होने पर पौधों की संपूर्ण पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा पौधे मर जाते हैं।

रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पूर्व किसी कवकनाशी रसायन जैसे थिरम या केप्टान 25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना चाहिए एवं ज्वार की रोगरोधी प्रजातियां उगानी चाहिए।

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