औषधीय पौधों की खेती कैसे करे ।औषधीय पौधों की खेती से सम्बंधित जानकारी
आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन कर लोगों को कई तरह के स्वास्थ लाभ मिल रहे है प्राचीन काल से ही आयुर्वेदिक विश्व की चिकित्सा पद्धति रही है, जिसमे औषधीय पौधों को उपयोग में लाया जाता रहा है कोरोना काल के समय महामारी से बचाव के लिए पूरे विश्व में औषधीय पौधों की मांग में काफी इजाफा हुआ था, जिसका बड़ा फायदा औषधीय पौधे उगाने वाले किसानो को हुआ द्य भारत में कई ऐसी आयुर्वेदिक कंपनिया मौजूद है, जिनका उत्पाद विश्वभर में प्रसिद्ध है, और मांग भी पूरे वर्ष बनी रहती है द्य हर्बल उत्पादों की बढ़ती मांग ने किसानो की रुचि परंपरागत खेती के अलावा जड़ी-बूटी और औषधीय खेती की और बढ़ाई हुई हैद्य किन्तु उत्तर प्रदेश राज्य में अभी भी इस तरह की खेती काफी कम हो रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश राज्य के किसानो की आमदनी बढ़ाने और उन्हें औषधीय खेती की और प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय मिशन योजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग कार्य कर रहा है। इस योजना के तहत किसानो को औषधीय खेती करने के लिए अनुदान प्रदान किया जा रहा है, ताकि किसान ओषधीय खेती कर अच्छा लाभ कम सके। अगर आप भी औषधीय खेती कर अधिक लाभ कमाने की सोच रहे है, तो यहाँ पर आपको औषधीय पौधों की खेती कैसे करे तथा औषधीय पौधों की खेती के बारे में जानकारी (लागत व मुनाफा) दी जा रही है।
भारत की पारंपरिक औषधीय फसलें (Medicinal Crops of India): भारत के ज्यादातर किसान पारंपरिक फसलों का उत्पादन करते है, जिसमे वह चावल, गेंहू, बाजरा, गन्ना, कपास, मक्का, ज्वार, सरसों, मूंगफली, बाजरा जैसी फसलों की बुवाई करते है द्य औषधीय फसलों में कालमेघ, काँच, सर्पगन्धा, अश्वगंधा, तुलसी, एलोवेरा, ब्राम्ही, सतावरी, लेमनग्रास, वच, आर्टीमीशिया, सहजन और अकरकरा प्रमुख फसलें है द्य एक हेक्टेयर के खेत में किसानो को परंपरागत फसलों की तुलना में औषधीय पौधों की खेती करने पर अधिक आमदनी होती है।
अकरकरा की खेती (AkarkaraCultivation): अकरकरा एक औषधीय फसल है, जिसके पौधे की जड़ो को आयुर्वेदिक दवाइयों को बनाने के लिए इस्तेमाल में लाते है। पिछले 400 वर्षों से अकरकरा का उपयोग आयुर्वेद में किया जा रहा है। इस पौधे में कई औषधीय गुण होते है। इसके बीज और डंठल की काफी मांग रहती है, जिसका इस्तेमाल दर्द निवारक दवाइयों और दंतमंजन से लेकर तेल का निर्माण करने में किया जाता है। अकरकरा की खेती में कम मेहनत लगती है, लेकिन मुनाफा अधिक होता है। इसकी फसल को तैयार होने में 6 से 8 महीने का समय लगता है, तथा पौधों को विकसित होने के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। भारत में अकरकरा की खेती मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में की की जाती है। इसके पौधों पर तेज गर्मी या अधिक सर्दी का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है।इसकी खेती में भूमि सामान्य पी. एच. मान वाली होनी चाहिए।
अश्वगंधा की खेती (Ashwagandha Cultivation) : अश्वगंधा एक झाड़ीदार पौधा होता है, जिसकी जड़ो से अश्व जैसी गंध निकलती है द्य यही कारण है, कि इस पौधे को अश्वगंधा कहते है। यह सभी तरह की जड़ी-बूटियों में सबसे अधिक लोकप्रिय है द्य इसका सेवन कर तनाव और चिंता जैसी समस्या को दूर किया जा सकता है द्य अश्वगंधा की जड़, बीज, फल और पत्ती को औषधीय रूप से इस्तेमाल में लाते है। अश्वगंधा की खेती किसानो के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी है। किसान भाई इसकी खेती कर कई गुना कमाई करते है, जिस वजह से इसे कैश कॉर्प भी कहते है। अश्वगंधा एक स्फूर्तिदायक, बलवर्धक, तनाव रोधी, स्मरणशक्ति वर्धक और कैंसररोधी पौधा है।यह औषधीय फसल कम लागत में अधिक उत्पादन दे देती है। किसान अश्वगंधा की खेती से लागत का तीन गुना ज्यादा लाभ कमाते है। अन्य फसलों की तुलना में इस फसल पर प्राकृतिक आपदा का खतरा भी कम होता है। अश्वगंधा की बुवाई के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है, तथा वर्तमान समय में पारंपरिक खेती के नुकसान को देखने हुए इसकी खेती किसानो के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रही है।
सहजन की खेती (Drumstick Cultivation): सहजन के पौधे में 90 : तरह के मल्टी विटामिन्स, 17 प्रकार एमिनो एसिड और 45 किस्म के एंटी ऑक्सीजडेंट गुण पाए जाते है द्य इसलिए पूरे वर्ष ही सहजन की मांग रहती है द्य सहजन की फसल एक • बार बुवाई के पश्चात् 4 वर्ष तक फसल देली रहती है, तथा इसमें लागत भी काफी कम आती हैद्य एक एकड़ के खेत में सहजन की बुवाई करने के पश्चात किसान भाई 10 माह में ही एक लाख रूपए की कमाई कर सकते है च इसे ड्रमस्टिक के नाम से भी जानते है द्य इसका उपयोग सब्जी के साथ दवाईओ को बनाने के लिए भी किया जाता है द्य देश के ज्यादातर हिस्सों में सहजन की बागवानी की जाती है द्य आयुर्वेद में सहजन की छाल, जड़ और पत्तो का इस्तेमाल किया जाता है द्य करीब 5 हजार वर्ष पहले जिन खूबियों को आयुर्वेद द्वारा पहचाना गया था, वह आधुनिक विज्ञान में साबित हो चुकी है द्य भारत के तेलंगाना, आंध्र
लेमनग्रास की खेती (Lemongrass Cultivation) : लेमनग्रास को साधारण प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सहजन की खेती की जाती है। भाषा में नींबू घास भी कहते है। भारतीय लेमन ग्रास के तेल में सिंट्राल और विटामिन ए की अधिकता पाई जाती है द्य बाजार में लेमनग्रास से निकले तेल की काफी अधिक मांग रहती है। लेमनग्रास तेल को साबुन, कॉस्मेटिक्स, तेल और दवा बनाने वाली कंपनिया काफी मात्रा में खरीदती है। इसी वजह से किसान भाइयो का रूझान लेमनग्रास की खेती की और अधिक देखने को मिल रहा है, तथा वह इसकी खेती कर मालामाल भी हो रहे है। इस फसल पर भी प्राकृतिक आपदा का कोई असर नहीं देखने को मिलता है, और न ही पशु इस फसल को खाते है य इसलिए इसकी फसल में काफी कम रिस्क होता है। इसकी खेती में रोपाई के बाद बस एक बार निराई गुड़ाई और वर्ष में अधिकतम 4 से 5 सिंचाई की जरूरत होती हैद्य भारत सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए एरोमा मिशन के अंतर्गत औषधीय पौधों के रकबे को बढ़ाने का प्रयास कर रही है, जिसमे से एक लेमनग्रास भी है। लेमन ग्रास का पौधा बुवाई के 6 माह पश्चात् तैयार हो जाता है, जिसके बाद 70 से 80 दिनों में इसकी कटाई की जा सकती है। इसके पौधे की एक वर्ष में 5-6 कटाई कर सकते है।
सतावर की खेती (Sage Farming): सतावर का पौधा शतावरी नाम से भी पुकारा जाता है। यह भी एक औषधीय फसल है, जिसका प्रयोग कई तरह की दवाइयों को बनाने में करते है। बीते कुछ वर्षों में सतावर की मांग में वृद्धि हुई है, साथ ही कीमत में भी बढोतरी देखने को मिली है। किसान भाइयो के लिए सतावर की खेती कमाई का एक अच्छा जरिया भी है। इसकी फसल को लगाने के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है। एक एकड़ के खेत में सतावर की खेती कर 5 से 6 लाख रूपए की कमाई करते है। इसका पौधा तैयार होने में 1 वर्ष से भी अधिक समय लेता है, तथा फसल के तैयार होने पर कई गुना फायदा मिलता है। इसकी फसल में कीट पतंगे नहीं लगते है, जो काफी फायदे की बात है। इसका पौधा कांटेदार होता है, जिस वजह से जानवर भी इस पौधे को नहीं खाते है। इसकी खेती मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और राजस्थान में बड़े पैमाने पर की जाती है।