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  • Fish Farming: जानिये मछलियों में होने वाले रोग और उनके रोकथाम

    Fish Farming: जानिये मछलियों में होने वाले रोग और उनके रोकथाम

    Fish Farming: जानिये मछलियों में होने वाले रोग और उनके रोकथाम

    Fish Farming के बारे मे तो आप जानते ही होंगे | मछली पालन कितना जरुरी है | मछली पालन कृषि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो न केवल पोषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी किसानों के लिए लाभदायक है। मछली पालन बहुत देख भाल से होता है हालांकि, मछलियों का पालन करते समय कई रोगों का सामना करना पड़ता है, जिनका सही समय पर उपचार न किया जाए तो यह भारी नुकसान का कारण बन सकते हैं। इस ब्लॉग में हम मछलियों में होने वाले प्रमुख रोगों और उनके उपचार के बारे में चर्चा करेंगे।

    Fish Farming: जानिये मछलियों में होने वाले प्रमुख रोग

    फंगल इन्फेक्शन (कवकीय संक्रमण):

    फंगल इन्फेक्शन मछलियों में एक आम समस्या है। यह संक्रमण प्रायः त्वचा और गलफड़ों पर सफेद धब्बों के रूप में दिखाई देता है। खराब जल गुणवत्ता और घाव इसके प्रमुख कारण हो सकते हैं।

    बैक्टीरियल इन्फेक्शन:

    बैक्टीरिया जनित रोग मछलियों में सामान्य हैं। यह संक्रमण मछलियों के शरीर पर घाव, गलफड़ों में सूजन और फिन रोट के रूप में दिखाई देते हैं।

    वायरल रोग:

    मछलियों में वायरस जनित रोग दुर्लभ लेकिन गंभीर होते हैं। यह रोग अक्सर मछलियों की वृद्धि को बाधित करते हैं और कभी-कभी उनके लिए घातक हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘Koi Herpes Virus’ (KHV) कोई मछलियों में पाया जाने वाला एक प्रमुख वायरस है।

    परजीवी रोग:

    परजीवी जैसे कि ईक्थियोफथिरियस (Ich) मछलियों में खुजली, त्वचा पर सफेद धब्बे और असामान्य व्यवहार के रूप में प्रकट होते हैं। यह रोग मछलियों की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर देता है।

    रोगों के कारण

    जल की गुणवत्ता:

    खराब जल गुणवत्ता, जैसे कि जल में ऑक्सीजन की कमी, अत्यधिक अमोनिया, और अन्य विषाक्त पदार्थों का उच्च स्तर मछलियों में रोगों का प्रमुख कारण है।

    अस्वच्छ पर्यावरण:

    टैंक या तालाब की सफाई न होना, मछलियों के शारीरिक घाव, और तनाव भी रोगों का प्रमुख कारण बनते हैं।

    अस्वास्थ्यकर भोजन:

    पोषण की कमी या दूषित भोजन मछलियों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है, जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।

    रोगों का उपचार

    जल की गुणवत्ता में सुधार:

    जल की नियमित जांच और उसमें आवश्यकतानुसार सुधार करना महत्वपूर्ण है। पानी का पीएच स्तर, तापमान, और ऑक्सीजन स्तर सही बनाए रखना चाहिए।

    औषधियों का उपयोग:

    फंगल और बैक्टीरियल इन्फेक्शन के लिए एंटीफंगल और एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जा सकता है। हालांकि, इनका प्रयोग पशु चिकित्सक की सलाह से ही करना चाहिए।

    परजीवी नियंत्रण:

    परजीवी रोगों के लिए विशेष उपचार, जैसे कि नमक स्नान, फॉर्मलिन स्नान, या विशेष परजीवीरोधी दवाओं का उपयोग किया जा सकता है।

    टीकाकरण:

    मछलियों को विभिन्न वायरल और बैक्टीरियल रोगों से बचाने के लिए टीकाकरण एक प्रभावी उपाय है। यह विशेष रूप से बड़े पैमाने पर मछली पालन में उपयोगी हो सकता है।

    आहार में सुधार:

    मछलियों को संतुलित और पौष्टिक आहार देना चाहिए। उच्च गुणवत्ता वाला भोजन मछलियों की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और उन्हें स्वस्थ रखता है।

    रोगों की रोकथाम

    नियमित जांच:

    मछलियों की नियमित स्वास्थ्य जांच करना चाहिए ताकि किसी भी रोग के प्रारंभिक लक्षणों को समय पर पहचाना जा सके।

    साफ-सफाई:

    तालाब या टैंक की नियमित सफाई करना आवश्यक है। अवशिष्ट भोजन और मल को समय-समय पर हटाना चाहिए।

    संक्रमित मछलियों का पृथक्करण:

    संक्रमित मछलियों को तुरंत स्वस्थ मछलियों से अलग कर देना चाहिए। यह रोग के फैलाव को रोकने में मदद करता है।

    जल के स्रोत का ध्यान:

    मछलियों के लिए स्वच्छ और ताजे जल का उपयोग करना चाहिए। अगर नदियों या तालाबों से जल ले रहे हैं तो उसमें मौजूद हानिकारक पदार्थों का ध्यान रखना चाहिए।

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  • SOLIS 4015 E Tractor: SOLIS 4015 E लेटेस्ट फीचर्स वाला बेहतरीन ट्रैक्टर

    SOLIS 4015 E Tractor: SOLIS 4015 E लेटेस्ट फीचर्स वाला बेहतरीन ट्रैक्टर

    SOLIS 4015 E Tractor: SOLIS 4015 E लेटेस्ट फीचर्स वाला बेहतरीन ट्रैक्टर

    SOLIS 4015 E Tractor: भारतीय कृषि क्षेत्र में ट्रैक्टरों का महत्व बहुत ज्यादा है। ट्रैक्टर न केवल खेती को आसान बनाते हैं, बल्कि उनकी उत्पादकता भी बढ़ाते हैं। SOLIS 4015 E एक ऐसा ट्रैक्टर है जो 40 एचपी की रेंज में लेटेस्ट फीचर्स के साथ आता है। यह ट्रेक्टर केवल आवश्यकता पूरी करने के साथ साथ अच्छे से डिज़ाइन किया गया है । आइए, इस ट्रैक्टर के फीचर्स और विशेषताओं के बारे में विस्तार से जानें।

    SOLIS 4015 E Tractor के फीचर्स और विशेषता

    पॉवरफुल इंजन और परफॉरमेंस

    SOLIS 4015 E में 40 एचपी का शक्तिशाली इंजन है जो किसानों को विभिन्न कृषि कार्यों में उत्कृष्ट परफॉरमेंस प्रदान करता है। इसका इंजन उच्च टॉर्क जनरेट करता है जिससे भारी-भरकम कार्य भी आसानी से किए जा सकते हैं। इसके अलावा, इंजन की ईंधन खपत भी किफायती है, जिससे किसानों की लागत में बचत होती है।

    एडवांस्ड ट्रांसमिशन सिस्टम

    इस ट्रैक्टर में एडवांस्ड ट्रांसमिशन सिस्टम का उपयोग किया गया है, जिसमें 8 फॉरवर्ड और 2 रिवर्स गियर दिए गए हैं। इससे ट्रैक्टर को विभिन्न प्रकार की मिट्टी और खेती की स्थितियों में आसानी से चलाया जा सकता है। गियर शिफ्टिंग का सिस्टम इतना स्मूद है कि ड्राइवर को कम से कम प्रयास में अधिकतम सुविधा मिलती है।

    हाईड्रोलिक कैपेसिटी

    SOLIS 4015 E की हाईड्रोलिक कैपेसिटी बहुत ही प्रभावशाली है। इसमें 1200 किलोग्राम तक की लिफ्टिंग कैपेसिटी दी गई है, जो विभिन्न कृषि उपकरणों को आसानी से उठाने और ले जाने में सक्षम बनाती है। यह विशेषता इसे अन्य ट्रैक्टरों से अलग बनाती है और किसानों के लिए एक बड़ी सहूलियत साबित होती है।

    फ्यूल टैंक और लंबी अवधि तक काम करने की क्षमता

    इस ट्रैक्टर में 55 लीटर का बड़ा फ्यूल टैंक दिया गया है, जिससे इसे लंबी अवधि तक बिना रुके काम किया जा सकता है। इसके अलावा, फ्यूल टैंक की डिज़ाइन ऐसी है कि इसमें ईंधन की बर्बादी न्यूनतम होती है और किसानों को बार-बार टैंक भरने की चिंता नहीं करनी पड़ती।

    आरामदायक ड्राइविंग एक्सपीरियंस

    SOLIS 4015 E Tractor aapkikheti.com

    SOLIS 4015 E में ड्राइवर के आराम का खास ध्यान रखा गया है। इसमें एडजस्टेबल सीट, पावर स्टीयरिंग और एर्गोनोमिक डिजाइन वाले कंट्रोल्स दिए गए हैं, जो ड्राइविंग को बेहद आरामदायक बनाते हैं। लम्बे समय तक काम करने के दौरान भी ड्राइवर को थकान महसूस नहीं होती।

    मल्टी-फंक्शनल डैशबोर्ड

    इस ट्रैक्टर का डैशबोर्ड मल्टी-फंक्शनल है, जिसमें सभी महत्वपूर्ण जानकारी एक ही नजर में देखी जा सकती है। इसमें फ्यूल लेवल, इंजन टेम्परेचर, और अन्य महत्वपूर्ण पैरामीटर्स की जानकारी मिलती है, जिससे ट्रैक्टर के परफॉरमेंस पर नजर रखी जा सकती है और आवश्यकतानुसार मेंटेनेंस किया जा सकता है।

    मजबूत और टिकाऊ निर्माण

    SOLIS 4015 E का निर्माण अत्यधिक मजबूत और टिकाऊ सामग्री से किया गया है, जो इसे लंबे समय तक चलने वाला और विश्वसनीय बनाता है। यह ट्रैक्टर विभिन्न कठिन परिस्थितियों में भी बेहतरीन परफॉरमेंस देने में सक्षम है, जिससे किसानों को लंबे समय तक सेवा मिलती है।

    पर्यावरण के अनुकूल

    इस ट्रैक्टर का इंजन पर्यावरण के अनुकूल है और इसे नवीनतम उत्सर्जन मानकों के अनुसार डिजाइन किया गया है। यह न केवल किसानों के लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी बेहतर है, क्योंकि इससे हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम होता है।

    रखरखाव और सर्विस

    SOLIS 4015 E Tractor aapkikheti.com

    SOLIS 4015 E का रखरखाव बेहद आसान और किफायती है। कंपनी द्वारा विभिन्न स्थानों पर सर्विस सेंटर स्थापित किए गए हैं, जहां ट्रैक्टर की नियमित सर्विस और मेंटेनेंस किया जा सकता है। इसके अलावा, स्पेयर पार्ट्स की उपलब्धता भी आसानी से हो जाती है, जिससे ट्रैक्टर की डाउनटाइम कम से कम होती है।

    कुल मिलाकर, SOLIS 4015 E ट्रैक्टर 40 एचपी रेंज में एक उत्कृष्ट विकल्प है। इसके एडवांस्ड फीचर्स, शक्तिशाली परफॉरमेंस और आरामदायक ड्राइविंग एक्सपीरियंस इसे किसानों के लिए एक आदर्श ट्रैक्टर बनाते हैं। इसके साथ ही, इसका मजबूत निर्माण और पर्यावरण के अनुकूल डिजाइन इसे और भी आकर्षक बनाता है। यदि आप एक नए ट्रैक्टर की तलाश में हैं जो आपकी सभी कृषि आवश्यकताओं को पूरा कर सके, तो SOLIS 4015 E एक बेहतरीन विकल्प है।

    और भी ट्रैक्टर्स के बारे में जाने

  • Bakra Eid 2024: बकरे का इन तरीको से रखे ख्याल

    Bakra Eid 2024: बकरे का इन तरीको से रखे ख्याल

    Bakra Eid 2024: बकरे का इन तरीको से रखे ख्याल

    Bakra Eid 2024, जिसे ईद-उल-अधा के नाम से भी जाना जाता है, इस्लामिक कैलेंडर का एक प्रमुख त्योहार है। इस दिन को विशेष रूप से बकरे की कुर्बानी के लिए जाना जाता है। बकरीद के मौके पर अगर आप घर में बकरा पाल रहे हैं, तो उसका खास ख्याल रखना बहुत जरूरी है। सही देखभाल और संतुलित आहार से बकरे को स्वस्थ रखा जा सकता है। इस ब्लॉग में हम आपको बताएंगे कि Bakra Eid 2024 के मौके पर बकरे की देखभाल कैसे करें और उसे क्या खिलाएं ताकि वह बीमार न पड़े।

    Bakra Eid 2024: बकरे की देखभाल के महत्वपूर्ण पहलू

    स्वच्छता का ध्यान रखें:

    बकरे की स्वस्थता के लिए स्वच्छता बहुत महत्वपूर्ण है। बकरे को रखने की जगह को साफ-सुथरा रखें। नियमित रूप से उसकी साफ-सफाई करें और उसके बाड़े को भी साफ रखें।

    पर्याप्त स्थान:

    बकरे को पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए ताकि वह आराम से घूम सके। बाड़े को बड़ा और हवादार बनाएं जिससे बकरे को ताजगी महसूस हो और वह स्वस्थ रहे।

    समय पर टीकाकरण:

    बकरे के स्वास्थ्य के लिए समय-समय पर उसका टीकाकरण कराना आवश्यक है। टीकाकरण से बकरे को कई गंभीर बीमारियों से बचाया जा सकता है।

    संक्रमण से बचाव:

    बकरे को संक्रमित होने से बचाने के लिए उसे गंदगी और संक्रमित जानवरों से दूर रखें। उसके बाड़े में कीटों और परजीवियों का नियंत्रण करें।

    बकरे के आहार में ध्यान देने योग्य बातें

    Bakra Eid 2024 aapkikheti.com

    संतुलित आहार:

    बकरे को संतुलित आहार देना बहुत जरूरी है। आहार में हरी घास, सूखा चारा, और दाने शामिल करें। संतुलित आहार से बकरे की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और वह स्वस्थ रहता है।

    प्रोटीन युक्त भोजन:

    बकरे के आहार में प्रोटीन की मात्रा सही होनी चाहिए। प्रोटीन युक्त भोजन जैसे कि चना, मूंगफली का खली और सोयाबीन का खली दें। प्रोटीन से बकरे की मांसपेशियों का विकास होता है।

    विटामिन और मिनरल्स:

    बकरे को विटामिन और मिनरल्स की भी जरूरत होती है। आहार में खनिज लवण, नमक और कैल्शियम शामिल करें। यह बकरे की हड्डियों को मजबूत बनाने में मदद करता है।

    पानी की उपलब्धता:

    बकरे को हमेशा ताजा और साफ पानी उपलब्ध कराएं। पानी की कमी से बकरे में डिहाइड्रेशन हो सकता है, जो उसकी सेहत के लिए हानिकारक है।

    खान-पान में विविधता:

    बकरे को एक ही प्रकार का खाना बार-बार देने से वह ऊब सकता है। इसलिए, आहार में विविधता लाएं और उसे अलग-अलग प्रकार का भोजन दें।

    बीमारियों से बचाव के उपाय

    नियमित जांच:

    बकरे की नियमित स्वास्थ्य जांच कराएं। यदि बकरे में किसी भी प्रकार के असामान्य लक्षण दिखाई दें, तो तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करें।

    संक्रमण का प्रबंधन:

    बकरे के बाड़े में सफाई का विशेष ध्यान रखें। बाड़े को नियमित रूप से कीटाणुरहित करें और संक्रमित जानवरों से बकरे को दूर रखें।

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    व्यायाम और गतिविधि:

    बकरे को पर्याप्त व्यायाम और गतिविधि की आवश्यकता होती है। उसे खुला छोड़ें ताकि वह आराम से घूम सके और स्वस्थ रहे।

    संक्रमणरोधी दवाओं का उपयोग:

    बकरे को संक्रमण से बचाने के लिए पशु चिकित्सक की सलाह पर संक्रमणरोधी दवाओं का उपयोग करें।

    बकरीद के दौरान विशेष ध्यान

    मानसिक तनाव से बचाव:

    बकरे को बकरीद के दौरान मानसिक तनाव से बचाएं। अचानक शोर-शराबे और भीड़-भाड़ से बकरे को दूर रखें ताकि वह शांत और स्वस्थ रहे।

    साफ-सफाई और हाइजीन:

    बकरे की कुर्बानी के दौरान साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें। इस दौरान उपयोग होने वाले सभी उपकरण और स्थान को अच्छी तरह से साफ रखें।

    संक्रमण के बाद देखभाल:

    बकरे की कुर्बानी के बाद उसकी खाल और अवशेषों को सही तरीके से डिस्पोज करें। यह संक्रमण के फैलाव को रोकने में मदद करता है।

    बकरीद के मौके पर बकरे की सही देखभाल और संतुलित आहार उसे स्वस्थ और तंदुरुस्त रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्वच्छता, पर्याप्त स्थान, समय पर टीकाकरण, और संतुलित आहार से बकरे की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और वह बीमारियों से बचा रहता है। इसलिए, यदि आप बकरीद के मौके पर बकरा पाल रहे हैं, तो इन बातों का ध्यान रखें और अपने बकरे को स्वस्थ और खुशहाल रखें।

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  • Sesame Seeds Dishes Recipe: तिल से बनाए स्वादिष्ट चीजें, जानिए रेसिपी

    Sesame Seeds Dishes Recipe: तिल से बनाए स्वादिष्ट चीजें, जानिए रेसिपी

    Sesame Seeds Dishes Recipe: तिल से बनाए स्वादिष्ट चीजें, जानिए रेसिपी

    तिल का उपयोग भारतीय रसोई में प्राचीन काल से हो रहा है। इसमें न केवल पोषक तत्व होते हैं, बल्कि इसका स्वाद भी बहुत ही लाजवाब होता है। तिल का उपयोग विभिन्न व्यंजनों में किया जा सकता है, चाहे वो मीठे हों या नमकीन। आइए जानते हैं Sesame Seeds Dishes Recipe, जिन्हें आप घर पर आसानी से बना सकते हैं।

    Sesame Seeds Dishes Recipe

    1. तिल लड्डू

    सामग्री:

    तिल: 1 कप
    गुड़: 1 कप (कद्दूकस किया हुआ)
    घी: 2 बड़े चम्मच
    काजू और बादाम (कटा हुआ): 1/4 कप

    विधि:

    • सबसे पहले तिल को सूखा भून लें जब तक वे सुनहरे भूरे न हो जाएं।
    • एक पैन में घी गर्म करें और उसमें कद्दूकस किया हुआ गुड़ डालें। गुड़ को मध्यम आंच पर पिघलाएं।
    • जब गुड़ पूरी तरह पिघल जाए, तो उसमें भुने हुए तिल और कटे हुए काजू और बादाम डालें। अच्छी तरह मिलाएं।
    • मिश्रण को थोड़ी देर ठंडा होने दें ताकि आप इसे हाथ से संभाल सकें।
    • मिश्रण से छोटे-छोटे लड्डू बना लें। ठंडा होने पर इन्हें एक एयरटाइट कंटेनर में रखें।

    2. तिल की चिक्की

    सामग्री:

    • तिल: 1 कप
      चीनी: 1 कप
      घी: 1 बड़ा चम्मच

    विधि:

    • तिल को सूखा भून लें और एक तरफ रख दें।
    • एक पैन में घी गर्म करें और उसमें चीनी डालें। चीनी को मध्यम आंच पर पिघलाएं।
    • जब चीनी पूरी तरह पिघल जाए और सुनहरी हो जाए, तो उसमें भुने हुए तिल डालें और जल्दी-जल्दी मिलाएं।
    • मिश्रण को जल्दी से एक घी लगे प्लेट में फैलाएं। इसे पतला और समान रूप से फैलाने के लिए बेलन का उपयोग करें।
    • मिश्रण के ठंडा होने से पहले, चाकू से इसके टुकड़े काट लें। ठंडा होने पर इन्हें एक एयरटाइट कंटेनर में रखें।

    3. तिल का पराठा

    सामग्री:

    • गेहूं का आटा: 2 कप
      तिल: 2 बड़े चम्मच
      नमक: स्वादानुसार
      पानी: आवश्यकतानुसार
      घी: सेकने के लिए

    विधि:

    • एक बर्तन में गेहूं का आटा, तिल, नमक और पानी मिलाकर नरम आटा गूंध लें।
    • आटे की छोटी-छोटी लोइयां बनाएं और उन्हें बेल लें।
    • तवे को गरम करें और पराठों को दोनों तरफ से घी लगाकर सुनहरा और कुरकुरा होने तक सेंकें।
    • गरमा-गरम तिल के पराठों को अचार या दही के साथ परोसें।

    Sesame Seeds Dishes Recipe

    4. तिल की बर्फी

    सामग्री:

    • तिल: 1 कप
      खोया: 1 कप
      चीनी: 1 कप
      घी: 2 बड़े चम्मच
      इलायची पाउडर: 1/2 छोटा चम्मच
      कटे हुए मेवे: 1/4 कप

    विधि:

    • तिल को सूखा भून लें और ठंडा होने पर पीस लें।
    • एक पैन में घी गरम करें और उसमें खोया डालकर हल्का भूनें।
    • अब पिसे हुए तिल और चीनी डालें। इसे मध्यम आंच पर अच्छी तरह मिलाएं।
    • मिश्रण को गाढ़ा होने तक पकाएं और फिर इलायची पाउडर और कटे हुए मेवे डालें।
    • मिश्रण को घी लगे प्लेट में फैलाएं और इसे ठंडा होने दें।
    • ठंडा होने पर बर्फी के टुकड़े काट लें और परोसें।

    तिल का उपयोग करके आप इन स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजनों को आसानी से बना सकते हैं। तिल न केवल आपके भोजन का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि इसमें मौजूद पोषक तत्व आपके स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभकारी होते हैं। Sesame Seeds Dishes Recipe को अपने खाने में शामिल करें और अपने परिवार और मेहमानों को खुश करें।

    इन रेसिपीज़ को आजमाएं और अपने अनुभव को साझा करें। तिल से बने ये व्यंजन न केवल स्वादिष्ट होते हैं, बल्कि सेहत के लिए भी बहुत अच्छे होते हैं। तो आज ही इन रेसिपीज़ को ट्राई करें और अपने खाने का स्वाद बढ़ाएं।

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  • औषधीय पौधों की खेती कैसे करे

    औषधीय पौधों की खेती कैसे करे

    औषधीय पौधों की खेती कैसे करे ।औषधीय पौधों की खेती से सम्बंधित जानकारी

    औषधीय पौधों की खेती कैसे करे

    आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन कर लोगों को कई तरह के स्वास्थ लाभ मिल रहे है  प्राचीन काल से ही आयुर्वेदिक विश्व की चिकित्सा पद्धति रही है, जिसमे औषधीय पौधों को उपयोग में लाया जाता रहा है कोरोना काल के समय महामारी से बचाव के लिए पूरे विश्व में औषधीय पौधों की मांग में काफी इजाफा हुआ था, जिसका बड़ा फायदा औषधीय पौधे उगाने वाले किसानो को हुआ द्य भारत में कई ऐसी आयुर्वेदिक कंपनिया मौजूद है, जिनका उत्पाद विश्वभर में प्रसिद्ध है, और मांग भी पूरे वर्ष बनी रहती है द्य हर्बल उत्पादों की बढ़ती मांग ने किसानो की रुचि परंपरागत खेती के अलावा जड़ी-बूटी और औषधीय खेती की और बढ़ाई हुई हैद्य किन्तु उत्तर प्रदेश राज्य में अभी भी इस तरह की खेती काफी कम हो रही है। ऐसे में उत्तर प्रदेश राज्य के किसानो की आमदनी बढ़ाने और उन्हें औषधीय खेती की और प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय मिशन योजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग कार्य कर रहा है। इस योजना के तहत किसानो को औषधीय खेती करने के लिए अनुदान प्रदान किया जा रहा है, ताकि किसान ओषधीय खेती कर अच्छा लाभ कम सके। अगर आप भी औषधीय खेती कर अधिक लाभ कमाने की सोच रहे है, तो यहाँ पर आपको औषधीय पौधों की खेती कैसे करे तथा औषधीय पौधों की खेती के बारे में जानकारी (लागत व मुनाफा) दी जा रही है।

    भारत की पारंपरिक औषधीय फसलें (Medicinal Crops of India): भारत के ज्यादातर किसान पारंपरिक फसलों का उत्पादन करते है, जिसमे वह चावल, गेंहू, बाजरा, गन्ना, कपास, मक्का, ज्वार, सरसों, मूंगफली, बाजरा जैसी फसलों की बुवाई करते है द्य औषधीय फसलों में कालमेघ, काँच, सर्पगन्धा, अश्वगंधा, तुलसी, एलोवेरा, ब्राम्ही, सतावरी, लेमनग्रास, वच, आर्टीमीशिया, सहजन और अकरकरा प्रमुख फसलें है द्य एक हेक्टेयर के खेत में किसानो को परंपरागत फसलों की तुलना में औषधीय पौधों की खेती करने पर अधिक आमदनी होती है।

    भारत की पारंपरिक औषधीय फसलें

    अकरकरा की खेती (AkarkaraCultivation): अकरकरा एक औषधीय फसल है, जिसके पौधे की जड़ो को आयुर्वेदिक दवाइयों को बनाने के लिए इस्तेमाल में लाते है। पिछले 400 वर्षों से अकरकरा का उपयोग आयुर्वेद में किया जा रहा है। इस पौधे में कई औषधीय गुण होते है। इसके बीज और डंठल की काफी मांग रहती है, जिसका इस्तेमाल दर्द निवारक दवाइयों और दंतमंजन से लेकर तेल का निर्माण करने में किया जाता है। अकरकरा की खेती में कम मेहनत लगती है, लेकिन मुनाफा अधिक होता है। इसकी फसल को तैयार होने में 6 से 8 महीने का समय लगता है, तथा पौधों को विकसित होने के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। भारत में अकरकरा की खेती मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में की की जाती है। इसके पौधों पर तेज गर्मी या अधिक सर्दी का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है।इसकी खेती में भूमि सामान्य पी. एच. मान वाली होनी चाहिए।

    अकरकरा की खेती

    अश्वगंधा की खेती (Ashwagandha Cultivation) : अश्वगंधा एक झाड़ीदार पौधा होता है, जिसकी जड़ो से अश्व जैसी गंध निकलती है द्य यही कारण है, कि इस पौधे को अश्वगंधा कहते है। यह सभी तरह की जड़ी-बूटियों में सबसे अधिक लोकप्रिय है द्य इसका सेवन कर तनाव और चिंता जैसी समस्या को दूर किया जा सकता है द्य अश्वगंधा की जड़, बीज, फल और पत्ती को औषधीय रूप से इस्तेमाल में लाते है। अश्वगंधा की खेती किसानो के लिए सबसे ज्यादा लाभकारी है। किसान भाई इसकी खेती कर कई गुना कमाई करते है, जिस वजह से इसे कैश कॉर्प भी कहते है। अश्वगंधा एक स्फूर्तिदायक, बलवर्धक, तनाव रोधी, स्मरणशक्ति वर्धक और कैंसररोधी पौधा है।यह औषधीय फसल कम लागत में अधिक उत्पादन दे देती है। किसान अश्वगंधा की खेती से लागत का तीन गुना ज्यादा लाभ कमाते है। अन्य फसलों की तुलना में इस फसल पर प्राकृतिक आपदा का खतरा भी कम होता है। अश्वगंधा की बुवाई के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है, तथा वर्तमान समय में पारंपरिक खेती के नुकसान को देखने हुए इसकी खेती किसानो के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रही है।

    अश्वगंधा की खेती

    सहजन की खेती (Drumstick Cultivation): सहजन के पौधे में 90 : तरह के मल्टी विटामिन्स, 17 प्रकार एमिनो एसिड और 45 किस्म के एंटी ऑक्सीजडेंट गुण पाए जाते है द्य इसलिए पूरे वर्ष ही सहजन की मांग रहती है द्य सहजन की फसल एक • बार बुवाई के पश्चात् 4 वर्ष तक फसल देली रहती है, तथा इसमें लागत भी काफी कम आती हैद्य एक एकड़ के खेत में सहजन की बुवाई करने के पश्चात किसान भाई 10 माह में ही एक लाख रूपए की कमाई कर सकते है च इसे ड्रमस्टिक के नाम से भी जानते है द्य इसका उपयोग सब्जी के साथ दवाईओ को बनाने के लिए भी किया जाता है द्य देश के ज्यादातर हिस्सों में सहजन की बागवानी की जाती है द्य आयुर्वेद में सहजन की छाल, जड़ और पत्तो का इस्तेमाल किया जाता है द्य करीब 5 हजार वर्ष पहले जिन खूबियों को आयुर्वेद द्वारा पहचाना गया था, वह आधुनिक विज्ञान में साबित हो चुकी है द्य भारत के तेलंगाना, आंध्र

    सहजन की खेती

    लेमनग्रास की खेती (Lemongrass Cultivation) : लेमनग्रास को साधारण प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सहजन की खेती की जाती है। भाषा में नींबू घास भी कहते है। भारतीय लेमन ग्रास के तेल में सिंट्राल और विटामिन ए की अधिकता पाई जाती है द्य बाजार में लेमनग्रास से निकले तेल की काफी अधिक मांग रहती है। लेमनग्रास तेल को साबुन, कॉस्मेटिक्स, तेल और दवा बनाने वाली कंपनिया काफी मात्रा में खरीदती है। इसी वजह से किसान भाइयो का रूझान लेमनग्रास की खेती की और अधिक देखने को मिल रहा है, तथा वह इसकी खेती कर मालामाल भी हो रहे है। इस फसल पर भी प्राकृतिक आपदा का कोई असर नहीं देखने को मिलता है, और न ही पशु इस फसल को खाते है य इसलिए इसकी फसल में काफी कम रिस्क होता है। इसकी खेती में रोपाई के बाद बस एक बार निराई  गुड़ाई और वर्ष में अधिकतम 4 से 5 सिंचाई की जरूरत होती हैद्य भारत सरकार ने किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए एरोमा मिशन के अंतर्गत औषधीय पौधों के रकबे को बढ़ाने का प्रयास कर रही है, जिसमे से एक लेमनग्रास भी है। लेमन ग्रास का पौधा बुवाई के 6 माह पश्चात् तैयार हो जाता है, जिसके बाद 70 से 80 दिनों में इसकी कटाई की जा सकती है। इसके पौधे की एक वर्ष में 5-6 कटाई कर सकते है।

    लेमनग्रास की खेती

    सतावर की खेती (Sage Farming): सतावर का पौधा शतावरी नाम से भी पुकारा जाता है। यह भी एक औषधीय फसल है, जिसका प्रयोग कई तरह की दवाइयों को बनाने में करते है। बीते कुछ वर्षों में सतावर की मांग में वृद्धि हुई है, साथ ही कीमत में भी बढोतरी देखने को मिली है। किसान भाइयो के लिए सतावर की खेती कमाई का एक अच्छा जरिया भी है। इसकी फसल को लगाने के लिए जुलाई से सितंबर का महीना उपयुक्त होता है। एक एकड़ के खेत में सतावर की खेती कर 5 से 6 लाख रूपए की कमाई करते है। इसका पौधा तैयार होने में 1 वर्ष से भी अधिक समय लेता है, तथा फसल के तैयार होने पर कई गुना फायदा मिलता है। इसकी फसल में कीट पतंगे नहीं लगते है, जो काफी फायदे की बात है। इसका पौधा कांटेदार होता है, जिस वजह से जानवर भी इस पौधे को नहीं खाते है। इसकी खेती मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और राजस्थान में बड़े पैमाने पर की जाती है।

  • Matka Water Side Effects: मटके का पानी पीने से हो सकते हैं कई नुकसान, इन 4 बातों का रखें ध्यान

    Matka Water Side Effects: मटके का पानी पीने से हो सकते हैं कई नुकसान, इन 4 बातों का रखें ध्यान

    Matka Water Side Effects: मटके का पानी पीने से हो सकते हैं कई नुकसान|

    Matka Water Side Effects: मटके का पानी पीना भारतीय परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह न केवल गर्मियों में ठंडक प्रदान करता है, बल्कि इसे प्राकृतिक तरीके से पानी ठंडा रखने के लिए भी जाना जाता है। लेकिन मटके का पानी पीने के कुछ नुकसान भी हो सकते हैं जिनके बारे में हमें सचेत रहना चाहिए। इस ब्लॉग में हम मटके के पानी के नुकसान और उन बातों पर चर्चा करेंगे जिनका ध्यान रखना आवश्यक है।

    मटके का पानी: एक पारंपरिक तरीका

    Matka Water Side Effects

    भारत में मटके का उपयोग पानी ठंडा रखने के लिए प्राचीन समय से होता आ रहा है। मिट्टी से बने मटके में पानी रखकर ठंडा करने की प्रक्रिया एक प्राकृतिक और पर्यावरण-अनुकूल तरीका है। मटके में पानी ठंडा रखने की यह प्रक्रिया वाष्पीकरण पर आधारित होती है। मिट्टी के मटके से पानी की सूक्ष्म मात्रा वाष्पित होती है, जिससे पानी ठंडा हो जाता है।

    Matka Water Side Effects\मटके का पानी पीने के संभावित नुकसान

    हालांकि मटके का पानी पीने के कई फायदे हैं, लेकिन इसके कुछ नुकसान भी हो सकते हैं जिनके बारे में हमें सचेत रहना चाहिए:

    1. स्वास्थ्य संबंधी जोखिम:
      • बैक्टीरियल संक्रमण: मिट्टी के मटके की सतह पर बैक्टीरिया और फंगस पनप सकते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। अगर मटका सही तरीके से साफ न किया जाए तो पानी दूषित हो सकता है।
      • धूल और गंदगी: मटके के ढक्कन का सही उपयोग न करने पर उसमें धूल और गंदगी आ सकती है, जो पानी को अस्वस्थ बना सकती है।
    2. पानी की गुणवत्ता:
      • खनिजों का प्रभाव: मटके की मिट्टी में मौजूद खनिज पानी के साथ मिल सकते हैं। ये खनिज हमेशा स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद नहीं होते और लंबे समय तक सेवन करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
      • कमी का धातुओं का रिसाव: मिट्टी में कई बार भारी धातुएं भी पाई जा सकती हैं, जो पानी में मिलकर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकती हैं।
    3. स्वच्छता और रखरखाव:
      • सफाई में कमी: मटके को नियमित रूप से साफ करना आवश्यक है, लेकिन अक्सर लोग इस पर ध्यान नहीं देते। इससे मटके के अंदर बैक्टीरिया और फंगस पनप सकते हैं।
      • सही रखरखाव का अभाव: मटके को सही तरीके से रखना और इस्तेमाल के बाद उसे धूप में सुखाना आवश्यक है। अगर इसे सही तरीके से नहीं रखा गया तो यह फंगस और बैक्टीरिया का घर बन सकता है।
    4. पर्यावरणीय प्रभाव:
      • जल संसाधनों पर दबाव: मटके का निर्माण मिट्टी से होता है और मिट्टी के अनियंत्रित दोहन से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

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    इन 4 बातों का रखें ध्यान

    मटके का पानी पीने से होने वाले नुकसान से बचने के लिए निम्नलिखित चार बातों का ध्यान रखना आवश्यक है:

    1. मटके की नियमित सफाई:
      • मटके को नियमित रूप से साफ करना चाहिए। इसके लिए बेकिंग सोडा और पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है। साफ करने के बाद मटके को धूप में सुखाना भी आवश्यक है ताकि बैक्टीरिया और फंगस न पनप सकें।
    2. सही ढक्कन का उपयोग:
      • मटके को हमेशा ढक्कन से ढक कर रखना चाहिए ताकि धूल और गंदगी मटके में न जा सके। ढक्कन को भी नियमित रूप से साफ करना चाहिए।
    3. मटके की सही स्थिति:
      • मटके को हमेशा साफ और सूखे स्थान पर रखना चाहिए। इसे सीधे जमीन पर रखने की बजाय किसी स्टैंड या ऊँचाई पर रखना चाहिए ताकि यह गंदगी और कीटाणुओं से सुरक्षित रहे।
    4. पानी की जांच:
      • मटके में डालने से पहले पानी की गुणवत्ता की जांच कर लें। फिल्टर्ड या उबले हुए पानी का इस्तेमाल करना हमेशा बेहतर होता है। यह सुनिश्चित करता है कि मटके का पानी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हो।

    मटके के पानी के फायदे भी हैं

    Matka Water Side Effects

    मटके के पानी से होने वाले संभावित नुकसान के बावजूद इसके कई फायदे भी हैं:

    • प्राकृतिक ठंडक: मटके का पानी प्राकृतिक रूप से ठंडा होता है और गर्मियों में बहुत राहत प्रदान करता है।
    • पर्यावरण-अनुकूल: यह फ्रिज की तुलना में पर्यावरण के लिए बेहतर है क्योंकि इसमें बिजली की जरूरत नहीं होती।
    • स्वाद में बेहतरी: मटके का पानी पीने में ताजगी देता है और इसका स्वाद भी अच्छा होता है।

    मटके का पानी पीना भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसके कई फायदे भी हैं। लेकिन इसके साथ जुड़ेMatka Water Side Effects के बारे में जागरूक रहना और उचित सावधानियाँ बरतना आवश्यक है। मटके की नियमित सफाई, सही रखरखाव, और पानी की गुणवत्ता की जांच करके हम इसके सेवन से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम कर सकते हैं।

    सही जानकारी और देखभाल के साथ, मटके का पानी न केवल स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हो सकता है बल्कि यह हमें प्रकृति के साथ जुड़ने का एक अनूठा तरीका भी प्रदान करता है। इसलिए, अगर आप मटके का पानी पीना चाहते हैं, तो इन सावधानियों का पालन जरूर करें और सुरक्षित व स्वास्थ्यवर्धक तरीके से इसका आनंद लें।

  • Drone Didi Yojna: जानिये ड्रोन दीदी कैसे बने कैसे मिलेगी ट्रेनिंग और पैसे| 

    Drone Didi Yojna: जानिये ड्रोन दीदी कैसे बने कैसे मिलेगी ट्रेनिंग और पैसे| 

    Namo Drone Didi Yojna: जानिये ड्रोन दीदी कैसे बने कैसे मिलेगी ट्रेनिंग और पैसे|

    Namo Drone Didi Yojna: भारत में कृषि, सर्वेक्षण, आपदा प्रबंधन और रक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में ड्रोन तकनीक का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इस वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, सरकार ने एक विशेष पहल शुरू की है, जिसका नाम ‘ड्रोन दीदी’ है। इस पहल का उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं को ड्रोन ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षित करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है। इस ब्लॉग में, हम ‘ड्रोन दीदी’ बनने की प्रक्रिया, प्रशिक्षण, और सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सुविधाओं पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।

    Namo Drone Didi Yojna क्या है और इसका क्या उद्देश्य है ?

    Namo Drone Didi Yojna

    ‘ड्रोन दीदी’ पहल का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं को ड्रोन तकनीक में प्रशिक्षित करना है ताकि वे अपने समुदायों में महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दे सकें। इससे न केवल उनकी आय में वृद्धि होगी, बल्कि वे तकनीकी क्षेत्र में भी अपने कदम रख सकेंगी। इस पहल के माध्यम से, सरकार महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास कर रही है।

    प्रशिक्षण कार्यक्रम

    ‘ड्रोन दीदी’ बनने के लिए सरकार एक विस्तृत प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करती है। इस कार्यक्रम में निम्नलिखित विषय शामिल होते हैं:

    1. ड्रोन की बुनियादी जानकारी: इस चरण में, महिलाओं को ड्रोन के विभिन्न प्रकार, उनके उपयोग और संचालन की बुनियादी जानकारी दी जाती है।
    2. सुरक्षा और कानूनी पहलू: ड्रोन उड़ाने के दौरान सुरक्षा के नियमों और कानूनी दिशानिर्देशों की जानकारी दी जाती है ताकि किसी भी प्रकार की दुर्घटना या कानूनी परेशानी से बचा जा सके।
    3. तकनीकी प्रशिक्षण: ड्रोन के विभिन्न हिस्सों, उनकी मरम्मत और रखरखाव की जानकारी दी जाती है।
    4. प्रैक्टिकल ट्रेनिंग: इसमें महिलाओं को वास्तविक ड्रोन उड़ाने और विभिन्न परिस्थितियों में उनका उपयोग करने का अभ्यास कराया जाता है।

    चयन प्रक्रिया

    ‘ड्रोन दीदी’ पहल में शामिल होने के लिए एक विशेष चयन प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शामिल होते हैं:

    1. आवेदन: इच्छुक महिलाएं ऑनलाइन या ऑफलाइन आवेदन कर सकती हैं। आवेदन पत्र में उनकी व्यक्तिगत जानकारी, शैक्षणिक योग्यता और ड्रोन तकनीक में रुचि के बारे में विवरण देना होता है।
    2. प्रारंभिक स्क्रीनिंग: आवेदन पत्रों की प्रारंभिक जांच की जाती है और पात्र उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट किया जाता है।
    3. साक्षात्कार: शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों का साक्षात्कार लिया जाता है, जिसमें उनकी तकनीकी समझ, समस्या समाधान कौशल और ड्रोन तकनीक के प्रति रुचि का मूल्यांकन किया जाता है।
    4. चयन: साक्षात्कार के आधार पर, अंतिम रूप से चयनित उम्मीदवारों को प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल किया जाता है।

    प्रशिक्षण के दौरान सुविधाएं

    सरकार ‘ड्रोन दीदी’ पहल के तहत महिलाओं को प्रशिक्षण के दौरान विभिन्न प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती है:

    1. निःशुल्क प्रशिक्षण: महिलाओं को ड्रोन तकनीक का निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि वे इस क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकें।
    2. वित्तीय सहायता: प्रशिक्षण के दौरान महिलाओं को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है ताकि वे आर्थिक रूप से सशक्त बन सकें और प्रशिक्षण के दौरान किसी भी प्रकार की आर्थिक कठिनाई का सामना न करना पड़े।
    3. प्रशिक्षण सामग्री: प्रशिक्षण के दौरान आवश्यक सभी सामग्री और उपकरण सरकार द्वारा प्रदान किए जाते हैं।
    4. प्रमाणपत्र: सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा करने पर, महिलाओं को प्रमाणपत्र प्रदान किया जाता है जो उन्हें रोजगार के अवसर प्राप्त करने में सहायता करता है।

    रोजगार के अवसर

    Namo Drone Didi Yojna

    ‘ड्रोन दीदी’ पहल के तहत प्रशिक्षित महिलाओं के लिए विभिन्न प्रकार के रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं:

    1. कृषि क्षेत्र: ड्रोन का उपयोग फसलों की निगरानी, कीटनाशक छिड़काव और सिंचाई की योजना बनाने में किया जाता है। महिलाएं इन सेवाओं के लिए स्थानीय किसानों के साथ काम कर सकती हैं।
    2. सर्वेक्षण और मैपिंग: ड्रोन का उपयोग भूमि सर्वेक्षण, मैपिंग और भौगोलिक जानकारी एकत्र करने में किया जाता है। महिलाएं सरकारी और निजी परियोजनाओं में इस क्षेत्र में काम कर सकती हैं।
    3. आपदा प्रबंधन: आपदाओं के दौरान राहत और बचाव कार्यों में ड्रोन का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। महिलाएं इस क्षेत्र में भी अपना योगदान दे सकती हैं।
    4. फ्रीलांसिंग और स्टार्टअप: प्रशिक्षित महिलाएं फ्रीलांस ड्रोन ऑपरेटर के रूप में काम कर सकती हैं या अपनी खुद की ड्रोन सेवा प्रदाता कंपनी शुरू कर सकती हैं।

    सफल ‘ड्रोन दीदी’ की कहानियां

    ‘ड्रोन दीदी’ पहल के तहत कई महिलाओं ने अपनी मेहनत और लगन से सफलता प्राप्त की है। उनकी कहानियां अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, ममता देवी, जिन्होंने प्रशिक्षण के बाद अपने गांव में ड्रोन सेवाओं की शुरुआत की और आज वे स्थानीय किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण सेवा प्रदाता बन चुकी हैं। उनकी सफलता ने गांव की अन्य महिलाओं को भी इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रेरित किया है।

    Namo Drone Didi Yojna

    ‘ड्रोन दीदी’ पहल महिलाओं के लिए एक अनूठा अवसर प्रदान करती है जिससे वे तकनीकी क्षेत्र में अपना करियर बना सकती हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकती हैं। सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली निःशुल्क प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में कदम रखना आसान बनाती है। यदि आप भी ड्रोन तकनीक में रुचि रखती हैं और इस पहल का हिस्सा बनना चाहती हैं, तो तुरंत आवेदन करें और अपनी उड़ान को नई ऊंचाइयों तक ले जाएं।

    संपर्क जानकारी

    अधिक जानकारी और आवेदन के लिए, कृपया निम्नलिखित संपर्क जानकारी का उपयोग करें:

    हम आशा करते हैं कि इस ब्लॉग ने Drone Didi Yojna पहल के बारे में आपके सभी प्रश्नों का उत्तर दिया होगा और आप इस अनूठी पहल का हिस्सा बनकर अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकेंगी।

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  • बहूफसली खेती: किसानों के लिए बेहद लाभकारी

    बहूफसली खेती: किसानों के लिए बेहद लाभकारी

    बहूफसली खेती: किसानों के लिए बेहद लाभकारी

    भारत के अधिकांश किसानों के लिए, कृषि न केवल एक व्यवसाय है बल्कि जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण साधन भी है। मक्का (कॉर्न) भारत की प्रमुख फसलों में से एक है, जिसका उपयोग खाद्य और पशु आहार के रूप में बड़े पैमाने पर किया जाता है। मक्का की खेती के साथ बहूफसली (मल्टी-क्रॉपिंग) तकनीक अपनाना किसानों के लिए आर्थिक लाभ और खेती की स्थिरता दोनों ही दृष्टिकोण से अत्यधिक फायदेमंद हो सकता है। इस ब्लॉग में हम मक्का के साथ बहूफसली खेती के लाभ, विधियाँ, और महत्वपूर्ण सुझावों पर विस्तृत जानकारी देंगे।

    बहूफसली खेती के लाभ

    आर्थिक लाभ:

    बहूफसली खेती में एक ही खेत में कई फसलें उगाने से किसानों की आमदनी में वृद्धि होती है। इससे एक ही सीजन में अलग-अलग फसलों का उत्पादन और बिक्री होने के कारण लाभ भी कई गुना बढ़ जाता है।

    मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना:

    विभिन्न फसलों की जड़ें और उनकी कृषि पद्धतियाँ मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में सहायक होती हैं। मक्का के साथ दलहनी फसलें उगाने से मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है, जिससे अगली फसल के लिए पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है।

    कीट एवं रोग नियंत्रण:

    एक ही खेत में विभिन्न फसलों के उगाने से कीट और रोगों का प्रकोप कम होता है। विभिन्न फसलों के कारण कीटों और बीमारियों के फैलने की संभावना कम होती है, जिससे रासायनिक कीटनाशकों की आवश्यकता भी कम हो जाती है।

    जल उपयोग में सुधार:

    बहूफसली खेती में अलग-अलग फसलों की जल आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं। इससे जल का अधिकतम और कुशल उपयोग होता है, और जलस्रोतों पर दबाव कम पड़ता है।

    जोखिम में कमी:

    एक ही प्रकार की फसल पर निर्भर रहने से किसान को मौसम, बाजार की कीमतों, और अन्य जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है। बहूफसली खेती में विभिन्न फसलों की विविधता होने से जोखिम का वितरण होता है और किसी एक फसल के खराब होने पर भी अन्य फसलों से आमदनी बनी रहती है।

    मक्का के साथ उपयुक्त फसलें

    बहूफसली खेती: किसानों के लिए बेहद लाभकारी

    मक्का के साथ बहूफसली खेती में सही फसलों का चयन महत्वपूर्ण होता है। यहाँ कुछ प्रमुख फसलें दी गई हैं जिन्हें मक्का के साथ उगाया जा सकता है:

    दलहन (पल्सेस): मक्का के साथ मूंग, उड़द, अरहर आदि को उगाना लाभकारी होता है। ये फसलें मिट्टी में नाइट्रोजन जोड़ती हैं और मक्का के लिए बेहतर पोषक वातावरण तैयार करती हैं।

    सब्जियाँ: मक्का के साथ टमाटर, मिर्च, लौकी, कद्दू, और अन्य सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं। ये फसलें मक्का के बीच की खाली जगह का उपयोग करती हैं और अतिरिक्त आय का स्रोत बनती हैं।

    तेलहन (ऑयलसीड्स): सूरजमुखी, मूंगफली, और तिल जैसी फसलें भी मक्का के साथ उगाई जा सकती हैं। ये फसलें मक्का के साथ सामंजस्य बनाकर उगती हैं और अतिरिक्त आय का स्रोत होती हैं।

    बहूफसली खेती की तकनीक

     

    फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन):
    फसल चक्र में विभिन्न फसलों को एक के बाद एक उगाना शामिल है। यह मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने और कीटों और रोगों के नियंत्रण में सहायक होता है। उदाहरण के लिए, मक्का के बाद दलहन की फसल उगाना लाभकारी हो सकता है।

    फसल मिलाना (इंटरक्रॉपिंग):

    फसल मिलाना तकनीक में एक ही खेत में एक साथ दो या दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं। उदाहरण के लिए, मक्का के साथ मूंग या उड़द को मिलाकर उगाना।

    फसल क्रम (सीक्वेंशियल क्रॉपिंग):

    इस तकनीक में एक फसल की कटाई के बाद दूसरी फसल तुरंत बोई जाती है। यह तकनीक अधिक उत्पादन और लाभ सुनिश्चित करने में सहायक होती है।

    महत्वपूर्ण सुझाव

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    मिट्टी परीक्षण:

    बहूफसली खेती शुरू करने से पहले मिट्टी का परीक्षण करवाना जरूरी है। इससे मिट्टी की उर्वरता और आवश्यक पोषक तत्वों की जानकारी मिलती है, जो फसल चयन और उर्वरक प्रबंधन में सहायक होती है।

    सिंचाई प्रबंधन:

    विभिन्न फसलों की जल आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं, इसलिए सिंचाई प्रबंधन पर ध्यान देना आवश्यक है। ड्रिप सिंचाई या स्प्रिंकलर सिस्टम जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग जल की बचत और समान वितरण में सहायक होता है।

    जैविक खेती:

    जैविक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करके मक्का और अन्य फसलों की जैविक खेती करना पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। जैविक उत्पादों की बाजार में अच्छी कीमत भी मिलती है।

    संगठन और प्रशिक्षण:

    किसानों को बहूफसली खेती की तकनीकों पर प्रशिक्षण और जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। स्थानीय कृषि विस्तार सेवाओं या कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेकर नई तकनीकों और विधियों को अपनाना चाहिए।

    बाजार की जानकारी:

    फसलों की कटाई के बाद उनकी सही कीमत पर बि

    क्री के लिए बाजार की जानकारी और समझ होना जरूरी है। समय-समय पर बाजार के रुझान और मांग की जानकारी लेकर फसल उत्पादन और बिक्री की योजना बनाना चाहिए।

    मक्का के साथ बहूफसली खेती किसानों के लिए एक उन्नत और लाभकारी कृषि पद्धति है। इससे न केवल किसानों की आय में वृद्धि होती है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता, जल उपयोग, और पर्यावरण संतुलन में भी सुधार होता है। सही फसल चयन, तकनीक, और प्रबंधन के साथ बहूफसली खेती को सफलतापूर्वक अपनाकर किसान अपनी आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार ला सकते हैं। कृषि में इस प्रकार की विविधता न केवल फसलों की पैदावार बढ़ाती है, बल्कि कृषि को स्थायी और अधिक लाभदायक बनाती है।

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  • पत्तागोभी की नई किस्म से किसानों की होगी मोटी कमाई

    पत्तागोभी की नई किस्म से किसानों की होगी मोटी कमाई

    पत्तागोभी की नई किस्म से किसानों की होगी मोटी कमाई

    भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने पत्तागोभी की एक नई किस्म विकसित की है, जो किसानों के लिए मोटी कमाई का साधन बन सकती है। इस नई किस्म का नाम है ‘प्रीतम’ और इसे बेहतर उत्पादन और रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए जाना जाता है। पत्तागोभी की यह किस्म उच्च गुणवत्ता की है और बाजार में इसकी मांग भी अधिक है। इस ब्लॉग में, हम पत्तागोभी की ‘प्रीतम’ किस्म की खेती की विधि, लाभ, और महत्वपूर्ण सुझावों के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे।

    प्रीतम किस्म की विशेषताएँ

    उच्च उत्पादन क्षमता:

    ‘प्रीतम’ किस्म की पत्तागोभी में उच्च उत्पादन क्षमता होती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर अधिक उपज देती है, जिससे किसानों की आय में वृद्धि होती है।

    रोग प्रतिरोधकता:

    इस किस्म को विभिन्न बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक बनाया गया है, जिससे खेती के दौरान कम रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करना पड़ता है। इससे उत्पादन की लागत कम होती है और फसल की गुणवत्ता बनी रहती है।

    बेहतर स्वाद और गुणवत्ता:

    ‘प्रीतम’ किस्म की पत्तागोभी का स्वाद और गुणवत्ता बेहतर होती है। इसका उपयोग सलाद, सब्जी, और अन्य व्यंजनों में आसानी से किया जा सकता है, जिससे बाजार में इसकी मांग बनी रहती है।

    कम समय में तैयार:

    यह किस्म सामान्य पत्तागोभी की तुलना में कम समय में तैयार होती है, जिससे किसानों को जल्दी फसल बेचने का मौका मिलता है और फसल चक्र में तेजी आती है।

    पत्तागोभी ‘प्रीतम’ की खेती की विधि

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    1. मिट्टी और जलवायु

    मिट्टी: पत्तागोभी की इस किस्म को हल्की दोमट मिट्टी, जिसमें जैविक पदार्थ की भरपूर मात्रा हो, सबसे अच्छी होती है। मिट्टी का पीएच स्तर 6 से 7 के बीच होना चाहिए।
    जलवायु: पत्तागोभी ठंडी जलवायु की फसल है। 15-20 डिग्री सेल्सियस तापमान इसके लिए उपयुक्त होता है। अधिक गर्मी और अधिक ठंड दोनों ही इसके विकास के लिए हानिकारक होते हैं।

    2. बुवाई का समय

    प्रीतम किस्म की पत्तागोभी की बुवाई का सही समय अक्टूबर से नवंबर तक होता है। ठंड के मौसम में यह फसल बेहतर परिणाम देती है।

    3. बीज की तैयारी

    बीज दर: प्रति हेक्टेयर 500-600 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है।

    बीज उपचार: बुवाई से पहले बीज को फफूंदनाशक (fungicide) से उपचारित करें, जिससे बीज जनित रोगों से बचाव हो सके।

    4. नर्सरी प्रबंधन

    नर्सरी बेड: नर्सरी बेड की चौड़ाई 1 मीटर और ऊंचाई 15 सेमी होनी चाहिए। लंबाई की कोई विशेष सीमा नहीं होती।

    बीज बोना: बीज को 1-2 सेमी गहराई में बोएं और हल्की मिट्टी से ढक दें। नियमित सिंचाई करते रहें।

    5. पौधारोपण

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    स्थानांतरण: जब पौधे 4-5 पत्ते निकाल लें और 4-6 सप्ताह पुराने हो जाएं, तब उन्हें खेत में रोपण करें।

    पंक्ति और पौधों के बीच दूरी: पौधों के बीच 45 सेमी और पंक्तियों के बीच 60 सेमी की दूरी रखें।

    6. खाद और उर्वरक

    जैविक खाद: 20-25 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद या कंपोस्ट का उपयोग करें।

    रासायनिक उर्वरक: 120 किग्रा नाइट्रोजन, 60 किग्रा फॉस्फोरस, और 60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दें। नाइट्रोजन को दो बराबर हिस्सों में बांटकर, एक भाग बुवाई के समय और दूसरा भाग रोपाई के 30 दिन बाद दें।

    7. सिंचाई प्रबंधन

    प्रारंभिक अवस्था में हर 7-10 दिन पर सिंचाई करें। फूल बनने और सिर बनने के दौरान पानी की आवश्यकता अधिक होती है, इसलिए इस अवधि में नियमित सिंचाई करें।

    8. निराई-गुड़ाई

    खेत को खरपतवार मुक्त रखने के लिए 20-25 दिन के अंतराल पर निराई-गुड़ाई करें। इससे पौधों को सही पोषक तत्व मिलते हैं और फसल अच्छी होती है।

    पत्तागोभी की नई किस्म से किसानों की होगी मोटी कमाई aapkikheti.com

    9. कीट और रोग प्रबंधन

    कीट: पत्तागोभी पर सबसे अधिक प्रकोप तम्बाकू की इल्ली और गोभी की तितली का होता है। इनसे बचाव के लिए जैविक या रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करें।

    रोग: पत्तागोभी में ब्लैक रॉट और डाउनी मिल्ड्यू जैसी बीमारियाँ आम हैं। बीज उपचार और फसल चक्र का पालन करके इन रोगों से बचा जा सकता है।

    10. कटाई और भंडारण

    कटाई: पत्तागोभी की कटाई तब करें जब सिर पूरी तरह से बन जाए और कठोर हो जाए। कटाई के समय ध्यान दें कि पत्ते ताजे और हरे हों।

    भंडारण: कटाई के बाद पत्तागोभी को ठंडे स्थान पर रखें। अच्छी गुणवत्ता की पत्तागोभी 1-2 सप्ताह तक ताजी रह सकती है।

    पत्तागोभी ‘प्रीतम’ की खेती के लाभ

    उच्च उत्पादन: प्रीतम किस्म से प्रति हेक्टेयर 25-30 टन उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, जो अन्य किस्मों की तुलना में अधिक है।

    अच्छी बाजार कीमत: उच्च गुणवत्ता और बेहतर स्वाद के कारण बाजार में इसकी अच्छी कीमत मिलती है।

    रोग प्रतिरोधकता: कम बीमारियों के कारण फसल की उत्पादन लागत कम होती है और गुणवत्ता बनी रहती है।

    जल और पोषक तत्वों की बेहतर उपयोगिता: सिंचाई और उर्वरकों का सही प्रबंधन करके उच्च गुणवत्ता की फसल प्राप्त की जा सकती है।

    पत्तागोभी की ‘प्रीतम’ किस्म किसानों के लिए एक अत्यधिक लाभदायक विकल्प हो सकती है। ICAR द्वारा सुझाई गई खेती की विधि को अपनाकर किसान उच्च उत्पादन और बेहतर गुणवत्ता प्राप्त कर सकते हैं। सही समय पर बुवाई, उचित सिंचाई, और कीट-रोग प्रबंधन से फसल की उत्पादकता और गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है। इसके साथ ही, बाजार की मांग और उचित मूल्य पर बेचने से किसानों की आय में वृद्धि हो सकती है। पत्तागोभी की इस नई किस्म के साथ, किसान अधिक मुनाफा कमा सकते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार सकते हैं।

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  • धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें ?

    धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें ?

    धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें ?

    धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें भारत में धान का प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दुनिया के कई देशों से काफी कम है। वहीं दुनियाभर में धान की फसल में लगने कीट तथा रोगों के प्रकोप से सालाना लगभग 10 से 15 फीसदी उत्पादन कम होने का अनुमान है। भारत में धान का प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दुनिया के कई देशों से काफी कम है। इसकी सबसे बड़ी वजह है धान की फसल में लगने वाले कीट व रोगों का सही समय पर नियंत्रण नहीं होना। वहीं दुनियाभर में धान की फसल में लगने कीट तथा रोगों के प्रकोप से सालाना लगभग 10 से 15 फीसदी उत्पादन! कम होने का अनुमान है। ऐसे में सही समय पर फसल में कीट व रोगों की पहचान करके इनका नियंत्रण करना आवश्यक होता है। गौरतलब है कि धान की फसल को मुख्यतः चार तरह के सूक्ष्म जीव जैसे कवक, जीवाणु, वायरस तथा नेमाटोड नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे में धान की फसल में कीट व रोगों का उचित प्रबंधन करना बेहद आवश्यक है।

    कवक के कारण लगने वाली प्रमुख बीमारियां ब्लास्ट रोग धान में यह रोग नर्सरी में पौध तैयार करते समय से लेकर फसल बढ़ने तक लग सकता है। यह बीमारी पौधे की पत्तियों, तना तथा गांठों को प्रभावित करता है। यहां तक कि फूलों में इस बीमारी का असर पड़ता है। पत्तियों में शुरूआत में नीले रंगे के धब्बे बन जाते हैं जो बाद में भूरे रंग में तब्दील हो जाते हैं। जिससे पत्तियां मुरझाकर सुख जाती है। तने पर भी इसी तरह के धब्बे निर्मित होते हैं। पौधे की गांठों में यह रोग होने पर पौधा पूरी तरह खराब हो जाता है। वहीं फूलों यह रोग लगने पर छोटे भूरे और काले रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इस रोग के कारण। फसल में 30 से 60 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। यह रोग वायुजनित कोनिडिया नामक कवक के कारण फैलता है।

    कैसे करें नियंत्रण जैविक इस रोग से रोकथाम के लिए ट्राइकोडर्मा विराइड प्रति 10 ग्राम मात्रा लेकर प्रति एक किलो बीज को उपचारित करना। चाहिए। इसके अलावा बिजाई से स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस की 10 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलोग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। खड़ी फसल के लिए ! ट्राइकोडर्मा विराइड या स्यूडोमोनास फ्लोरोसिस का लिक्विड फॉर्म्युलेशन की 5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

    रासायनिक कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी या कार्बोक्सिन 37.5 डब्ल्यूपी की 2 ग्राम मात्रा लेकर प्रति एक किलोग्राम बीज को उपचारित करें। खड़ी फसल में । इस बीमारी के लक्षण दिखने पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी की 500 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

    धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें: ब्राउन स्पॉट यह बीमारी नर्सरी में पौधे तैयार करते समय या पौधे में फूल आने के दो सप्ताह बाद तक हो सकती है। यह पौधे की पत्तियों, तने, फूलों और कोलेप्टाइल जैसे हिस्से को प्रभावित करता है। पत्तियों और फूलों पर विशेष रूप से लगने वाले इस रोग के कारण पौधे पर छोटे भूरे धब्बे दिखाई देने लगते हैं। यह धब्बे पहले अंडाकार या बेलनाकार होते है फिर गोल हो जाते हैं। इन 1 धब्बों के कारण पत्तियां सुख जाती हैं। इस रोग के कारण पौधे की पत्तियां भूरी और झुलसी हुई दिखाई देती हैं। इस रोग को फफूंद झुलसा रोग के नाम से जाना जाता है। धान की फसल में किट व रोग पर कैसे नियंत्रण करें।

    कैसे करें नियंत्रण-जैविक- रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीजों को ट्राइकोडर्मा विरिड की 5 से 10 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलो बीज शोधित करना चाहिए। खड़ी फसल के लिए ट्राइकोडर्मा विरिड 10 मिलीलीटर मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

    रासायनिक-इसके लिए कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी की 2 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलोग्राम बीज उपचारित करें। खड़ी फसल के लिए प्रोपीकोनाजोल 25 ईसी 500 मिली प्रति हेक्टेयर की मात्रा लेकर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

    शीट रॉट-पत्तियों पर अनियमित आकार के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते। हैं। वहीं इस रोग के प्रकोप से फूल सड़ जाते हैं जिससे फूल पूरी तरह खराब हो जाता है। जो फसल के उत्पादन को प्रभावित करता है।

    कैसे करें नियंत्रण- जैविक-इस रोग की रोकथाम के लिए स्यूडोमानास फ्लोरेसेंस की 10 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलोग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। वहीं खड़ी फसल के लिए रोपाई के 45 दिनों बाद स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस 0.2 प्रतिशत मात्रा का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद 10 दिनों के अंतराल पर तीन बार इसका छिड़काव किया जाना चाहिए। रासायनिक कार्बेन्डाजिम एजॉक्सीस्ट्रोबिन की 500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर मात्रा लेकर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

    मैन डिक्लेरेशन – धान की फसल कटाई के पहले या बाद में अनाज विभिन्न जीवों से संक्रमित हो जाता है। जिससे अनाज के खराब होने की संभावना बढ़ जाती है। धान के दानों पर गहरे भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं। यह धब्बे पीले, लाल, नारंगी या गुलाबी रंग के भी हो सकते हैं। जिससे फसल की गुणवत्ता घट जाती है।

    कैसे करें नियंत्रण- जैविक-धान की कटाई से पहले खेत का पानी पूरी तरह से निकाल देना चाहिए। इसके अलावा फसल को अच्छी तरह सुखाने के बाद ही स्टोरेज करना चाहिए।

    रासायनिक-फूल आने के समय कार्बन्डाजिम + मैंकोजेब (50-50न तिशत) की 0.2 मात्रा लेकर छिड़काव करना चाहिए।

    फाल्स स्मट-इस रोग के कारण फसल का दाना हरे रंग के बीजाणुओं में बदल जाता है। जिसके कारण उत्पादन कम हो जाता है।

    कैसे करें नियंत्रण-प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. की 500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की मात्रा लेकर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव पौधे में बूट लीफ आने के बाद तथा दूसरा छिड़काव फूल आने के अन्य बाद करना चाहिए। फंगीसाइड रोग : स्प्रेम रॉट-इस रोग के कारण पत्तियों पर छोटे-छोट काले घाव बन जाते है जो बाद में सड़कर टूट जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए पत्तियां आने के समय 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर कार्बेन्डाजिम की मात्रा लेकर छिड़काव करें।

    फूट रॉट- नर्सरी में पौधे तैयार करते समय इस रोग के कारण धान के पौधे दुबले पतले और कमजोर रह जाते हैं। इसके लिए कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. की 2 ग्राम मात्रा से प्रति एक किलोग्राम बीज शोधित करना चाहिए।