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  • कृषि में तकनीकी प्रगति: कृषि उपकरण की उम्मीद से युग बदल रहा है

    कृषि में तकनीकी प्रगति: कृषि उपकरण की उम्मीद से युग बदल रहा है

    कृषि में तकनीकी प्रगति: कृषि उपकरण की उम्मीद से युग बदल रहा है

    कृषि, हमारे सभ्यता की रीढ़ है, जिसने वर्षों के दौरान अद्भुत प्रगति देखी है, और इस विकास का हृदय कृषि उपकरणों, या “कृषि उपकरण”, में है जो फसल उत्पादन के तरीकों में क्रांति लाई है।

    भूमिका: पारंपरिक खेती के तरीके

    प्रारंभिक दिनों में, कृषि में मनुअल मेहनत और आधारभूत उपकरणों जैसे हल, कुट्टी, और हो जैसे बुनियादी औजारों पर भरोसा किया जाता था। किसानों ने घंटों तक मेहनत की और फसलों की उपज के लिए मौसमी परिवर्तनों पर निर्भरता देखी। यह प्रक्रिया मेहनती, समय-समय लेने और अक्सर सीमित उत्पादन देती थी।

    वर्तमान: आधुनिक कृषि उपकरण

    आज की दुनिया में, कृषि विस्तार को एक नई दिशा देने के लिए उद्घाटन कर चुकी है। तकनीकी प्रगति ने कई आधुनिक कृषि उपकरणों को लाया है, जो कृषि के कामों को सरल बनाने, कार्यक्षमता में सुधार करने और उत्पादकता को बढ़ाने में मदद करते हैं।

    • ट्रैक्टर और टिलर्स: ट्रैक्टर और टिलर्स के प्रस्तावना ने भूमि की तैयारी को मेकेनाइज़ किया, जिससे हल, हरोंग और फील्ड्स को स्तरित करने के लिए जरूरी समय और मेहनत कम हो गई।

    • सीडर्स और प्लांटर्स: प्रेसिजन सीडर्स और प्लांटर्स से बुआई के समय बीज का समान रूप से रखा जा सकता है, जिससे फसल की उत्पादनता बढ़ी और व्यर्थता कम हुई।

    • सिंचाई प्रणाली: ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर प्रणालियाँ पानी को संयोजित रूप से वितरित करती हैं, जिससे यह मूल्यवान संसाधन संरक्षित रहता है और संचारित होता है।

    • कटाई की मशीनें: कंबाइन हार्वेस्टर्स और रीपर्स ने कटाई की प्रक्रिया को स्वचालित किया है, जिससे कृषि श्रमिकों की आवश्यकता कम होती है और समय से पहले और अच्छे तरीके से फसल काटी जा सकती है।

      कृषि में तकनीकी प्रगति का सारांश:

      पारंपरिक खेती में हाथीले औजारों की मेहनत से लेकर, आधुनिक कृषि उपकरणों ने कृषि को क्रांति का सामना करने में मदद की है। ट्रैक्टर, सीडर्स, सिंचाई प्रणालियाँ और कटाई की मशीनें – ये सभी किसानों को समय और मेहनत बचाने में सहायक हैं, जिससे खेती में बेहतर उत्पादकता हो रही है। तकनीकी प्रगति ने कृषि को नई दिशा दी है और आने वाले समय में भी इसे और भी विकसित करने की उम्मीद है।

  • अफ़ीम की खेती कैसी होती है

    अफ़ीम की खेती कैसी होती है

    अफ़ीम की खेती कैसी होती है

    अफ़ीम की खेती कैसी होती है

    अफीम की खेती :- अफीम की खेती मादक पदार्थ (Narcotics) के लिए कीजाती है। इसके पौधा एक मीटर ऊँचा, तना हरा, पत्ता आयताकार तथा फूल सफेद, बैंगनी या रक्तवर्ण, सुंदर कटोरीनुमा एवं चौड़े व्यास वाले होते है। इसके पौधों पर फल फूल झड़ने के तुरंत बाद आने लगते है, जिसका आकार एक इंच व्यास वाला देखने में अनार की तरह होता है। इसके फल को डोडा कहते है, तो स्वयं ही फट जाता है, तथा फल के छिलको को पोश्त कहा जाता है। इन डोडो के अंदर सफेद रंग के गोल आकार वाले सूक्ष्म, मधुर दानेदार बीज पाए जाते है। इन्हे आमतौर पर खसखस भी कहते है। नमी होने पर अफीम मुलायम होने लगती है। इसका अंदरूनी भाग गहरा बादामी और चमकीला है, जो बहार से काला रंग लिए गहरा भूरा होता है। इसकी गंध तीव्र गति वाली होती है, जिसका स्वाद तिक्त होता है। अफीम को जलाने पर किसी प्रकार का धुआँ नहीं होता है, और न ही कोई राख होती है, किन्तु पानी में यह आसानी से घुल जाती है। चूंकि अफीम एक नशीला पदार्थ है, इसलिए इसकी खेती करने से पहले नारकोटिक्स विभाग से इजाजत लेनी पड़ती है, जिसके बाद आप कुछ नियम व शर्तों को ध्यान में रखते हुए बिना किसी रोकटोक के आसानी से अफीम की खेती कर सकते है।

    यह कम खर्च में अधिक से अधिक मुनाफा देनी वाली खेती है। यदि आप भी अफीम की खेती करने के बारे में सोच रहे है, तो इस लेख में आपको अफीम की खेती कैसे • होती है, अफीम की खेती का लाइसेंस कैसे मिलेगा तथा अफीम की खेती से कितनी कमाई होगी, इसके बारे में विशेषतौर पर बताया जा रहा है।

    भारत में अफीम की खेती :- पूरे विश्व में अफीम की खेती कुछ ही देशो में की जाती है। अफगानिस्तान में अफीम को मुख्य रूप से उगाया जाता है, जिस वजह से अकेले अफगानिस्तान में 85% अफीम का उत्पादन किया जाता है। भारत के कुछ ही राज्यों में अफीम की खेती की जाती है। चूंकि भारत में अफीम का उत्पादन पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में होता है, इसलिए गत वर्ष 2020-21 में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्य में अफीम का उत्पादन तकरीबन 315 टन था।

    अफ़ीम की खेती कैसी होती है

    अफीम की खेती करने का तरीका :- अफीम की खेती के लिए ठंडी जलवायु की • आवश्यकता होती है। इसलिए इसके बीजो की बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के मध्य की जाती है। बीज बुवाई से पहले खेत को अच्छी तरह से जुताई कर तैयार कर लेना • होता है। इसके लिए खेत की गहरी जुताई की जाती है। जुताई के पश्चात खेत में • पानी लगाकर मिट्टी के नम हो जाने के लिए छोड़ देते है। खेत का पानी सूख जाने | पर रोटावेटर लगाकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है। ताकि खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाए। भुरभुरी मिट्टी को पाटा लगाकर समतल कर देते है। : अफीम की खेती में अधिक मात्रा में खाद व वर्मी कम्पोस्ट की मात्रा को खेत में डालना ! होता है। इसकी खेती में न्यूनतम सीमा का विशेष ध्यान रखे, इसलिए भूमि को पर्याप्त • मात्रा में पोषक तत्व जरूर दे। यदि आप न्यूनतम सीमा से बाहर खेती करते है, तो • आपका लाइसेंस तक रद्द हो सकता है। पर्याप्त भूमि में ही अधिक मात्रा में पैदावार • पाने के लिए भूमि की जांच अवश्य करवाए और भूमि में जिस चीज की कमी हो उसे पूरा करे, ताकि उत्पादन अच्छी मात्रा में मिल सके।

    अफीम की खेती में भूमि व् जलवायु :- अफीम की खेती किसी भी तरह की • मिट्टी में की जा सकती है। गहरी काली व् पर्याप्त जीवांश पदार्थ वाली भूमि जिसका P.H. मान 7 के आसपास हो तथा वहां पिछले 5 से 6 वर्षो में अफीम की खेती न की गयी हो। इसके अलावा खेत जल भराव वाला न हो। अफीम का पौधा समशीतोष्ण जलवायु वाला होता है, इन्हे 20 से 25 डिग्री तापमान की जरूरत होती है।

  • मक्के में लगने वाले प्रमुख किट उनके रोकथम के उपाय

    मक्के में लगने वाले प्रमुख किट उनके रोकथम के उपाय

    मक्के में लगने वाले प्रमुख किट उनके रोकथम के उपाय

    मक्के में लगने वाले किट

    मक्का एक बहपयोगी खरीफ ऋतु की फसल है एवं इसमें कार्बोहाइड्रेट 70. प्रोटीन 10 और तेल 4 प्रतिशत पाया जाता है. जिसके कारण इसका उपभोग मनुष्य के साथ-साथ पशु आहार के रूप में भी किया जाता है. बात अगर औद्योगिक दृष्टिकोण से करें तो भी इसका उपयोग मुर्गी दाना में भी किया जाता है. लेकिन इन तमाम गुणों के होते हुए भी अन्य फसलों की तरह इसे हानिकारक कीटों द्वारा खतरा है। मक्का एक बहपयोगी खरीफ ऋतु की फसल है एवं इसमें कार्बोहाइड्रेट 70, प्रोटीन 10 और तेल 4 प्रतिशत पाया जाता है, जिसके कारण इसका उपभोग मनुष्य के साथ-साथ । पशु आहार के रूप में भी किया जाता है. बात अगर औद्योगिक दृष्टिकोण से करें तो भी इसका उपयोग मुर्गी दाना में भी किया जाता है. लेकिन इन तमाम गुणों के होते हुए भी अन्य फसलों की तरह इसे हानिकारक कीटों द्वारा खतरा है। मक्के को कीटों से बचाने के लिए जरूरी यह है कि किसान भाइयों को मक्का फसल सही समय पर बोने, उन्नत किस्मों का चुनावह करने, उपयुक्त खाद देने और समय पर कीट। रोकथाम करने के उपाय आने चाहिए, जिन कृषक बंधु ने मक्के की बुवाई की है, उन्हें मक्के में लगने वाले कीटों, रोगों वह उनके उपचार के बारे में जानना बहुत जरूरी है ताकि समय रहते वहह कीट को पहचान कर उचित उपचार कर सकें।

    तना छेदक कीट : तना भेदक सुंडी तने में छेद करके उसे अंदर से खाती है. जिससे गोभ एवं तना सूख जाता है. यह मक्के के लिए सबसे अधिक हानिकारक कीट है, ध्यान देने वाली बात यह है कि इसकी सुण्डियां 20-25 मि.मी. लम्बी और स्लेटी सफेद रंग की होती है. जिसका सिर काला होता है और चार लम्बी भूरे रंग की लाइन होती है। इसकी सुंडिया तनों में सुराख करके पौधों को खा जाती है. जिससे छोटी फसल में पौधों की गोभ सूख जाती है, बड़े पौधों में ये बीच के पत्तों पर सुराख बना देती है। इस कीट के आक्रमण से पौधे कमजोर हो जाते हैं, और पैदावार बहुत कम हो जाती है।

    इस तरह करें तना छेदक कीट से मक्के का बचाव: मक्के की फसल लेने के बाद, बचे हुए अवहशेषों, खरपतवार और दूसरे पौधों को नष्ट कर दें. ग्रसित हुए पौधे को निकालकर नष्ट कर दें. कीट के नियंत्रण हेतु 5-10 ट्राइकोकार्ड का प्रयोग करना चाहिये। रासायनिक नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत, ई0सी0 1. 50 लीटर अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत, ई0सी0 1.50 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत, एस०एल० की 1.25 लीटर मात्रा को प्रति हे0 की दर से 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़कावह करना चाहिये। 20 लीटर गौमूत्र में 5 किलो नीम की पत्ती 3 किलो धतुरा की पत्ती और 500 ग्राम तम्बाकू की पत्ती, 1 किलो बेशर्म की पत्ती, 2 किलो अकौआ की पत्ती, 200 ग्राम अदरक की पत्ती (यदि नही मिले तो 50 ग्राम अदरक) 250ग्राम लहसुन, 1 किलो गुड, 25 ग्राम हींग एवं 150 ग्राम लाल मिर्च डाल कर तीन दिनों के लिए छाया में रख दें. यह घोले 1 एकड़ के लिए तैयार है. इस घोल का दो बार में 7-10 दिनों के तक छिड़काव करना है. प्रति 15 लीटर पानी में 3 लीटर घोल मिलाकर छिड़काव करना होगा।

    मक्के में लगने वाले किट

    मक्का का कटुआ कीट: कटुआ कीड़ा काले रंग की सूंडी है, जो दिन में मिट्टी में छुपती है. रात को नए पौधे मिट्टी के पास से काट देती है. ये कीट जमीन में छुपे रहते हैं और पौधा उगने के तुरन्त बाद नुकसान करते हैं. कटुआ कीट की गंदी भूरी सुण्डियां पौधे के कोमल तने कोमिट्टी के धरातल के बराबर वाले स्थान से काट देती है और इससेफसल को भारी हानि पहुंचती है. सफेद गिडार पौधों की जड़ों कोनुकसान पहुंचाते हैं तथा इनके व्यस्क भृगद्ध पौधो के फूलों वह पत्तों परपलते हैं।

    कटुआ कीट की रोकथाम :कटुआ कीट की रोकथामके लिए गली सड़ी खाद का ही प्रयोग करें एवं बीजाई के समय 2 लीटर क्लोरपाइरीफास तथा 20 ई.सी. को 25 कि.ग्रा सुखी रेत में मिलाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब सें खेत में डालें, कटे पौधे की मिट्टी खोदे, सुंडी को बाहर निकालकर नष्ट करें एवं स्वस्थ पौधों की मिट्टी को क्लोरोपायरीफास 10 ई सी 3 मिलीलीटर लीटर पानी से भिगोएँ ।

    मक्का की सैनिक सूडी : सैनिक संडी हल्के हरे रंग की, पीठ पर धारियाँ और सिर प्रति पीले भूरे रंग का होता है. बड़ी सुंडी हरी भरी और पीठ पर गहरी धारियाँ होती हैं. यह कुड मार के चलती है. सैनिक सुंडी ऊपर के पत्ते और बाली के नर्म तने को काट देती है। अगर सही समय पर सूडी की रोकथाम न की तो फसल में 3 से 4 क्विटल झाड़ कम कर देती है. अगर 4 सैनिक सूंडी प्रति वहगेफूट मिलें तो इनकी आवहश्क हो जाती है।

    सेकका सुंडी का नियंत्रण : सैनिक सुंडी को रोकने के लिए 100 ग्राम कार्बरिल, 50 डब्लूपी या 40 मिलीलीटर फेनवेलर, 20 ईसी या 400 मिलीलीटर क्वीनालफास 25 प्रतिशत ईसी प्रति 100 लीटर पानी प्रति एकड़ छिड़के ।

    25 का का छाले वाला भृग : मक्का फसल की यह सुंडी मध्यम आकार की 12 से 25 सहा मीटर लम्बी चमकीले नीले, हरे, काले या भूरे रंग की होती है. छेड़ने पर ये अपने फीमर के अन्तिम छोर से कैन्ध्रडिन युक्त एक तरल पदार्थ निकालती है, जिस के त्वचा पर लगने से छाले पड़ जाते हैं. इनके प्रौढ़ फूलों और पत्तियों को खाकर नुकसान पहुंचाते है, इनकी सूंड़ियां का विकास टिड्डे तथा मधुमक्खियों के अण्डों पर होता है।

    कैसे करे बचाव : इन कीटों से बचाव के लिए जरूरी है कि खेत में पड़े पुराने खरपतवार एवं अवहशेषों को नष्ट किया जाए एवं इमिडाक्लोप्रिड 6 मिलीण्धिकग्राण बीज का शोधन किया जाए. वहीं संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करें।

  • अनाज के सुरक्षित भण्डारण के लिए किसान अपनाये ये सुझाव

    अनाज के सुरक्षित भण्डारण के लिए किसान अपनाये ये सुझाव

    अनाज के सुरक्षित भण्डारण के लिए किसान अपनाये ये सुझाव

    भण्डारण की सही जानकारी न होने से 10 से 15 प्रतिशत अनाज नमी, दीमक, बैक्टीरिया द्वारा नष्ट हो जाता है। अनाज को रखने के लिए गोदाम की सफाई कर दीमक और पुराने अवशेष आदि को बाहर निकालकर जलाकर नष्ट कर दे। दीवारों, फर्श एवं जमीन आदि में यदि दरार हो तो उन्हें सीमेंट, ईट से बंद करे दें। टूटी दीवारों आदि की मरम्मत करा दें। भण्डारण में होने बाली इस क्षति को रोकने के लिए किसान सुझावों को ध्यान में रखकर अनाज को भण्डारित कर सकते हैं। अनाजों को अच्छी तरह से साफ-सुथरा कर धूप में सुखा लेना चाहिए, जिससे कि दानों में 10 प्रतिशत से अधिक नमी न रहने पाए। अनाज में ज्यादा नमी रहने से फफूंद एवं कीटों का आक्रमण अधिक होता है। अनाज को सुखाने के बाद दांत से तोड़ने पर कट की आवाज करें तो समझना चाहिए कि अनाज भण्डारण के लायक सूख गया है। इसके बाद अनाज छाया में रखने के बाद ठंडा हो जाने के बाद ही भण्डार में रखना चाहिए।

    भंडारण के लिए तैयार करें लकड़ी और तख्ते का मंच अनाज से भरे बोरे को भण्डार गृह में रखने के लिए फर्श से 20 से 25 सेमी की ऊंचाई पर बांस या लकड़ी के तख्ते का मंच तैयार करना चाहिए, जो दीवार से कम-से-कम 75 सेमी की दूरी पर हो। बोरियों के छल्लियों के बीच भी 75 सेमी खाली स्थान रखना फायदेमंद होता है। गोदाम में पक्षियों एवं चूहों के आने-जाने के रास्ते को बंद कर देना चाहिए। अनाजों व दालों का भंडारण कुछ पारंपरिक अन्न भंडारण के तरीके जैसे आनाजों व दालों के कड़वा तेल लगाना, राख मिलाना, नीम, लहसुन व करंज के पत्ते कोठी में बिछाना, सूखे हुए लहसुन के डंठल रखना आदि। अनुसंधानों द्वारा यह पाया गया कि परंपरागत तरीके से आनाज व दालों में 10-20 प्रतिशत तक राख मिलाने से वो खराब नहीं होते पर आवश्यक है कि राख को छानकर व सुखा कर ही डाला जाय। राख की राधेश्या रगड़ खाकर कीड़े मर जाते और दानों के बीच की जगह जहां हवा हो सकती है, वहां राख आ जाने से हवा नहीं रहती। इस प्रकार राख मिलाना लाभप्रद होता है।

    अनाज के सुरक्षित भण्डारण

    भंडारण करने से पहले यह सावधानियां जरूरी अनाज भरे बोरे को छल्लियों या अन्न के ढेर को प्रधूमित करने के लिए एल्मुनियम फॉस्फाइड का पाउच आवश्यकतानुसार रखकर पॉलीथीन चादर से अच्छी तरह ढक कर उसके किनारे को सतह के साथ गीली मिट्टी से वायुरुद्ध कर देना चाहिए। चूहों से बचाने के लिए एक ग्राम जिंक फॉस्फाईड और उन्नीस ग्राम सत्तू या आटा में थोड़ा सरसों तेल मिलाकर एवं लगभग 10 ग्राम की गोली बनाकर चूहों के आने-जाने के रास्ते पर गिनती में रख देना चाहिए। खुले हुए अनाज पर कीटनाशी नहीं रखना चाहिए, चूहा शंकालु प्रवृत्ति का होता है। इसलिए बदल-बदल कर विषाक्त चारा, चूहे-दानी एवं टिकिया को रखना चाहिए। दवा अनाज में देने के बाद हाथ साबुन से अच्छी तरह धो लेना चाहिए।

    भण्डारण में पुराना आनाज एवं भूसा इत्यादि को निकल कर एक महीने पहले सफाई कर चूहों द्वारा किए गए छेद एवं अन्य टूट-फूट की मरम्मत कर नीम की पत्ती का प्रधुमन करके अच्छी तरह से भण्डारण को बंद कर दें, जिसमें छुपे हुए भण्डारण कीट नष्ट हो जाए एवं अन्य भण्डारण बोरी को खौलती नीम की पत्ती वाले पानी में शोधित कर अच्छी तरह सुखा ले। अन्न का भंडारण करते समय हवा के रुख को अवश्य ध्यान रखे अगर पुरवा हवा चल रही हो, तब अन्न का भंडारण न करें। अनाज भंडारण में नीम की पत्ती का प्रयोग करते समय नीम पत्ती सूखी होनी चाहिए। इसके लिए नीम पत्ती को भण्डारण से 15 दिन पहले किसी छायादार स्थान पर कागज पर रख कर सुखा ले उसके बाद अन्न की बोरी में रखे । भंडारण गृह में न हो सीलन भण्डारण के लिए वैसे भण्डार गृह का चयन करना चाहिए, जहां सीलन (नमी) न हो एवं चूहों से अन्न का बचाव किया जा सके।

    भण्डार-गृह हवादार हो एवं जरूरत पड़ने पर वायुरूद्ध भी किया जा सके। भण्डार से पूर्व पक्का भण्डार गृह | एवं धातु की कोठियों को साफ-सुथरा कर लेना चाहिए एवं कीटमुक्त । करने के लिए मेलाथियान 50 प्रतिशत का पानी में 1:100 में बने घोल को दीवारों एवं फर्श पर प्रति एक सौ वर्ग मीटर में तीन लेयर घोल की दर से छिड़काव करना चाहिए। बोरियों में अनाज भर कर रखने के पहले इन बोरियों को 20-25 मिनट तक खौलते पानी में डाल देना चाहिए। इसके बाद धूप में अच्छी तरह सूखा देना चाहिए अथवा छिड़काव के लिए बने मालाथियान 50 प्रतिशत के घोल में बोरियों को डुबाकर फिर बाहर निकालकर सुखा लेना चाहिए। ठीक से सूख जाने के बाद ही उसमें अनाज भरना चाहिए।

  • बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम

    बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम

    बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम

    बाजरा पश्चिमी राजस्थान। में बोई जाने वाली प्रमुख फसल है। बाजरा भारत की प्रमुख फसलों में से एक है। जिसका उपयोग भारतीय लोग बहुत लम्बे समय से करते आ रहे है। इसकी खेती अफ्रीका और भारतीय महाद्वीप में बहुत समय पहले से की जा रही है। अधिक सूखा सहनशीलता उच्चे तापमान व अम्लीयता सहन के कारण बाजरा उन क्षेत्रों में भी आसानी से उगाया जा सकता है जहा मक्का या गेहूं नहीं उगाये जा सकते है। बाजरा बहुत रोगों से प्रभावित होता है जिसका समय पर उपचार कर फसल को नुकसान से बचाया जा सकता है। बाजरे की बिमारियां निम्न प्रकार से है।

    बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग

    1. तुलासिता व हरित बाली रोग: यह एक फफूंद जनित रोग है जिसको जोगिया, हरित बाली या कोडिया आदि नामों र से भी जाना जाता है। यह बाजरे की फसल का प्रमुख रोग है। तथा हमारे देष में लगभग सभी बाजरा उत्पादक राज्यों में पाया जाता है। इस रोग में सर्वप्रथम 15-20 दिन के उम्र के पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है। पत्तियों की नीचे की सतह पर कवक की सफेद वृद्धि दिखाई देती है। पत्तियों पर एक दुसरे के समानान्तर पीली धारियां बन जाती है। जो कि पत्तियों की सम्पूर्ण लम्बाई में फेल जाती है। रोग की उग्रता के साथ धारियां भूरे रंग की हो जाती है। तथा पत्तियां भूरी होकर सिरे से लम्बाई में चिथडों में फट जाती है। तथा सिकुड जाती है। इस रोग के प्रमुख लक्षण बाजरे की बाली पर दिखाई देते है। जिसमें दानों की जगह पूरी बाली या निचले भाग में छोटी ऐंठी हुई, बालीदार हरी पत्तियों जैसी संरचनाओं में परिवर्तित हो जाती है। इसी लक्षण की बजह से इस रोग को हरित बाली एवं कोडिया रोग से जाना जाता है।

    रोग की रोकथाम : सामान्यत: रोग प्रतिरोधी किस्मों का ही बुवाई के लिए चयन करें जैसे आरसीबी 2 हाईब्रीड-आईसीएमएच-88088, एचबी-5, एनएचबी-10, एनएचबी-14 गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहियें। ▶ खेत मे रोगग्रस्त पौधे दिखाई देते ही उखाड़कर जला या गड्डा खादकर दबा देना चाहिए। फसल की अगेती बुवाई करनी चाहिए जिससे तुलासिता रोग का प्रकोप कम हो एवं फसल चक्र अपनाना चाहिए। खेत में गोबर की खाद व उर्वरकों का सही मात्रा मे प्रयोग करना चाहिए। फसल में रोग दिखाई देते ही बुवाई के 30 दिन बाद मैंन्कोजेब 2 किलोग्राम या रिडोमिल (मेटेलेक्सिल बी मैन्कोजेब) एक किलो हजार लीटर पानी प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें।

    2. अरगट (चैप्पा रोग) :  फफूंद जनित बाजरे का यह रोग फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। यह रोग बालियों पर पुष्पन के समय दिखाई देते है यह। रोग सबसे पहले दानें बनने से पूर्व गुलाबी या ष्षहद जैसी छोटी-छोटी बुंदों के रूप मे दिखाई देता है। यह हनीड्यू या मधुबिन्दु अवस्था कहलाती है। फसल। पकने के साथ ही बाद में मधुरस गायाब हो जाता है। तथा बाली में दानों के स्थान पर छोटी बैंगनी गहरे भुरे रंग की अनियमित संरचना (स्कलेरोषिया) बन जाती है । जिन्हे अरगट या चेंम्यां रोग कहते है। फसल कटने के समय ये ! संरचनाये दानों के साथ या भूमि में मिल जाती है। व ये रोगाणु अगले वर्ष फसल में रोग उत्पन्न करते है।

    रोग की रोकथाम : स्कलेरोषिया रहित साफ बीज बुवाई के लिये काम में लेवें। 20 प्रतिषत नमक के घोल में बीज को 5 मिनट तक डुबाना चाहिए एवं पानी में तैरते हुये स्कलेरोषिया को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए। डूबे बीजो। को साफपानी मे धोकर, छाया में सुखोकर बुवाई से पहले बीजों को थायरम 2 ग्राम प्रतिकिलों बीज दर से उपचारित कर बोना चाहिए। बाजरे की अगेती बुवाई करके रोग के प्रकोपों को कमी की जा सकती है। सिट्टे निकलते समय यदि आसमान में बादल छायें हो एवं हवा में नमी हो तो 2 किलो मेंकोजेब या 1 किलो कार्बनडेजिम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए ।। ▶ संकुल किस्में डब्ल्यूसीसी-75, आईसीटीसी 8230 आदि बोने से इस रोग की तीव्रता कम हो जाती है।

    3. कंडवा (स्मट) रोग : यह रोग बाजरा बोये जोने वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। यह रोग दाना बनने के समय दिखाई देता है । इस रोग से ग्रस्त सिट्टे में दानों के स्थान पर चमकीले हरें या चॉकलेट रंग के दाने बन जाते है। जो कि सामान्य से दाने से डेढ से दो गुना बड़े होते है। तथा ये आकार में अण्डाकार से टोपाकार कंड सोरस में दिखाई देते है। कभी-कभी से सिट्टे की एक तरफ या सिट्टे की निचली सतह ही बनते है। व दूसरी तरफ स्वस्थ दानें होते है। तथा से सिट्टे में एक दो दाने से लेकर पूरे सिट्टे में फेले हो सकते है। रोग ग्रस्त दानों का हरा रंग धीरे-धीरे गहरे भूरे काले रंग में बदल जाता है। जिनके अन्दर काला रंग का चूर्ण होता है। जो कि रोगजनक के रोगाणु होते है।

    रोग की रोकथाम – बुवाई के लिये साथ सुथरे व प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करना चाहिए। सिट्टे निकलते समय यदि आसमान में बादल छाये हो एवं हवा में नमी हो तो प्रोपेकोनाजोल (टिल्ट) या हेक्जाकोनाजोल 0.1 प्रतिषत का छिडकाव करने से रोग की तीव्रता कम हो जाती है। आईसीएमवी 155, आइसीटीपी 8203, डब्ल्यूसीसी-175, जैसी संकर किस्में बोनी चाहिए ।

    4. रोली रोग : इस रोग से पत्तियों पर लाल भूरें रंग के छोटे-छोटे धब्बें बनते है। जो कि हाथ से रगड़ने पर हाथ पर लाल भूरा चूर्ण लग जाता हे। जो बाद में काले रंग के हो जाते है। यह रोग अधिक आद्रर्ता वाले क्षेत्रों में अधिक होता है।

    रोग की रोकथाम – इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही फूफूंदनाषक मेन्कोजैब 2 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है। यदि आवष्यक हो तो 15 दिन मे छिड़काव दोबारा करें। 5. पत्ती धब्बाा (ब्लास्ट) रोग : इस रोग में पत्तियों में सामान्य रूप से छोट, नीले, जलसिक्तनाव जैसे भूरे लाल रंग के तथा मध्य वाला भाग शवेत धुसर अथवा राख जैसे रंग का होता हे। यह फूंदजनित रोग मौसम के अनुकुल होने पर पूरी पत्तियों पर फेल जाता है। तथा पत्तियों को समय से पहले झुलसा देता है। इस रोग का प्रकोप सामान्यतः बाजरा, उगाने वाले सभी क्षेत्रों में होता है।

    रोकथामः इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही कार्बनडेजिम या हेक्जाकोनाजोल 0.05 प्रतिषत की दरे से छिड़काव करने से रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है।

  • प्याज के रोग और कीट एवं उनकी रोकथाम

    प्याज के रोग और कीट एवं उनकी रोकथाम

    प्याज के रोग और कीट एवं उनकी रोकथाम

    दोस्तों नमस्कार इस लेख में हम आपको बताने जा रहे हैं कि अगर आपने प्याज की खेती की है तो आपके लिए क्या समस्या उत्पन्न हो सकती है और कौन सी समस्या उत्पन हो रही है तो आइए जानते हैं प्याज में होने वाली समस्याएं और उन समस्यायों का निवारण कैसे करें? यह भी जानते हैं। किसान भाईयों प्याज की खेती में रोग एवं कीट नियंत्रण जरूरी है, क्योंकि भारत में भिन्न भिन्न प्रकार की सब्जियों की खेती में प्याज का बड़ा महत्व है। जो एक नकदी फसल के रूप में जानी जाती है। प्याज एक बहुगुणी फसल है। प्याज की उत्पादन क्षमता पर कीट एवं रोग अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। जिसमें फसलों को विभिन्न प्रकार से क्षति या कह सकते हैं कि नुकसान पहुंचता है। प्याज में काली फफूदी रोग किसान भाईयों जैसे कि नाम से पता चल रहा है कि, यह एक प्रकार की फफूंदी होती है। यह एक प्रकार का आम कवक होता है यह स्टार्च वाली लगभग सभी सब्जियों में पाई जाता है। इस कवक जनित रोग के प्रभाव के कारण बीज बिना अंकुरित हुए सड़ जाते हैं। यदि अंकुरण होता भी है। तो मूल संधि वाले हिस्से में पानी से भरे हुए घाव दिखाई देते हैं।

    निवारण के उपाय :- इस रोग से बचाव हेतु अच्छे से अच्छे जलनिकास वाला खेत चुनना चाहिए। और गर्म मौसम में यह ध्यान रखना चाहिए कि आर्द्रता 80 प्रतिशत से कम ही रहे। इस रोग से बचाव हेतु आप ट्रायडाइमफॉन 25.0 WP का प्रयोग भी कर सकते हैं। किसान भाईयों सबसे पहले यदि आपके पास उपलब्ध हो सके तो प्रतिरोधक या सहनशील प्रजातियों को चुनना चाहिए। और पौधे से पौधे की दूरी पर्याप्त मात्रा में रखनी चाहिए। और लार्वा या अंडो वाली पत्तियों अथवा पौधों को हाथ से ही निकाल फेंकना चाहिए। तथा आप मेथोमाइल अथवा इंडोक्साकार्ब पर आधारित कुछ उत्पादों का भी उपयोग कर सकते हैं।

    काला धब्बा रोग :- दोस्तों महाराष्ट्र राज्य में खरीफ ऋतु के मौसम में इस बीमारी का प्रकोप बहुत ज्यादा होता है। यह रोग कॉले टोट्राइकम ग्लेओस्पोराइडम नामक कवक से होता है। रोग के प्रारम्भ में पत्तियों के बाहरी भाग पर जमीन से लगने वाले भाग में राख के रंग के चकत्ते बन जाते हैं। जो बाद में बढ़ जाते हैं और पूरी पत्तियों पर काले रंग के उभार से दिखने लगते हैं। ये उभार गोलाकर होते हैं। इससे प्रभावित पत्तियाँ मुरझाकर मुड़ जाती हैं। नियंत्रण के उपाय: रोपाई से पहले पौधों की जड़ों को कारबेंडाजिम या क्लोरोथलोनिल के 0.2 घोल में डुबाना चाहिए। पौधशला के लिए उठी हुई क्यारियों बना लेनी चाहिए। ▶ पौधशाला में बीज पतला बोना! चाहिए।

    थ्रिप्स कीट: किसान भाईयों यह एक छोटे आकार का कीड़ा होता है, जिसके शिशु और वयस्क दोनों ही पत्तियों से रस चूसते हैं। पत्तियों पर सफेद धब्बे बनते हैं, जो बाद की अवस्था में पीले और सफेद हो जाते हैं। यह कीड़ा शुरू की अवस्था में पीले रंग का होता है जो आगे चलकर काले और भूरे रंग का हो जाता है। । नियंत्रण के उपाय: किसान भाईयों प्याज के बीज को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू एस पाउडर से (2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) शोधित करके ही बोना चाहिए। दोस्तों मेन खेत में रोपाई के बाद में डाईमेथोएट 30 ई सी की 1 मिलीलीटर मात्रा या फॉस्फामिडॉन 85 ई सी 0.6 प्रतिशत की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर में मिलाकर 2 से 3 बार करना चाहिए। यह छिड़काव 15-15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।

    मूरा विगलन रोग दोस्तों यह रोग स्यूडोमोनास ऐरूजिनोसा नामक जीवाणु से होता है। यह रोग आमतौर पर प्याज भण्डारण के समय में लगता है। इस बीमारी का प्रकोप प्याज के कदों के गर्दन वाले माग से शुरू हो जाता है, जो बाद में सड़कर गंध करने लगता है। नियंत्रण के उपाय प्याज की खुदाई करने के उपरांत इसे अच्छी प्रकार से सुखा लेना चाहिए तथा भण्डारण ऐसी जगह करना चाहिए जहां नमी कम से कम हो और हवादार स्थान हो।

    बैंगनी धब्बा या पर्पल ब्लाच रोग:- दोस्तों आमतौर पर यह बीमारी प्याज उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पायी जाती है। यह रोग फंफूद (अल्टरनेरिया पोरी) से होता है। यह रोग प्याज की पत्तियों, तनों और डंठलों पर लगता है। इस रोग से  ग्रस्त भाग पर सफेद भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। जिनका बीच का भाग बाद में बैंगनी रंग का हो जाता है। इस रोग से भंडारण के समय में प्याज सड़ने लगता है, जिससे भारी क्षति होती है। नियंत्रण के उपाय किसान भाईयों प्याज में इस रोग के नियंत्रण हेतु प्रतिरोधी प्रजाति के बीज का प्रयोग करना चाहिए। बुवाई से पूर्व प्याज के

    बीज को थीरम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम से शोधित कर लेना चाहिए। इस रोग का प्रकोप मेन खेत में होने पर क्लोरोथेलोनिल 75 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा का डाइथेन एम- 45 की 25 गाम मात्रा प्रति लीटर पानी के साथ 0.01 सैंडोविट या कोई चिपचिपा पदार्थ अवश्य मिलाकर 10 दिन के अंतराल पर 3 से 4 बार छिड़काव कर लेना चाहिए।

    जीवाणु मृदु विगलन: दोस्तों यह रोग इर्विनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है। इस रोग के संक्रमण से पत्तियों पीली पड़ने लगती है। | तथा ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती हैं। अधिक संक्रमण होने पर पौध 01 सप्ताह में सूखने है। इस रोग से प्याज को बीच फसल में अधिक नुकसान पहुंचता है।

  • ज्वार के किट एवं प्रबंधन

    ज्वार के किट एवं प्रबंधन

    ज्वार के किट एवं प्रबंधन

    ज्वार के कीट एवं प्रबंधन

    कीट एवं रोग प्रबंधन ज्वार की फसल में अनेक कीट एवं रोग लगते हैं, जो कसल की उपज वृद्धि उ और टिकाउपन में एक ए प्रमुख समस्या है। इस फसल को कीटों तथा रोगों से काफी नुकसान पहुंचता है जिससे इसकी पैदावार में काफी कमी हो जाती है। यदि समय रहते इन रोगों और कीटों का नियंत्रण कर लिया जाये तो ज्यार की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। तना मक्खी, तना छेदक, पर्ण फुदका, दाना मिज, बालदार सुंडी और माहू ज्वार के मुख्य नाशी कीट, जबकि दाने का कंडवा रोग, अर्गट, ज्वार का किट्ट, मूल विगलन और मृदुरोमिल आसिता ज्वार के मुख्य रोग हैं। ज्वार के किट एवं प्रबंधन से जुड़ी जानकारी के लिए आगे पढ़ें।

    कीट रोकथाम :– तना छेदकदृ इसकी गिडार या सुंडियां छोटे पौधों की गोफ को काट देती है जिससे गोफ सूख जाती है। इसका प्रभाव बुवाई के 15 दिन बाद से आरंभ होकर फसल में भुट्टे आने के समय तक होता है। पौधे की बढ़वार के साथ ही ये तने में सुरंग सी बना लेती है तथा अन्दर ही अन्दर तने के मुलायम हिस्सों को खाती है जिसके परिणामस्वरूप पौधे के वृद्धि भाग की मृत्यु हो जाती है, जिसे डैड-हर्टस के नाम से जाना जाता है।

    रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए बुवाई के 25 दिनों बाद कार्बोफ्युरॉन (3) प्रतिशत) दानेदार कीटनाशक 7.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए और 10 दिनों के बाद दूसरा बुरकाव इसी मात्रा में पौधों की गोफ में करना चाहिए।

    पर्ण फुदका (पाइरिला) :- इस कीट का आक्रमण बेमौसम एवं पेड़ी ज्वार में अधिक पाया गया है। यह कीट पौधों की पत्तियों का रस चूसकर नुकसान पहुंचाता है, जिससे पौधों का हरापन कम हो जाता है एवं पौधे सूख जाते हैं।

    रोकथाम :– इस कीट का नियंत्रण सामान्यतया स्वयं ही हो जाता है। अधिक आक्रमण होने पर मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्ल्यू एस सी कीटनाशी की 1 लीटर दवा का 600 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

    तना मक्खी :- यह ज्वार का एक प्रमुख कीट हैद्य इसका प्रकोप पौधों के जमाव के लगभग 7 दिन बाद से 30 दिन तक होता है। कीट की इल्लियां उगते हुए पौधों की गोफ को काट देती हैं, जिससे शुरू की अवस्था में ही पौधे सूख जाते हैं। कुछ पौधों की गोफ सूख जाने के बाद भी कल्ले निकलते हैं, पर उनमें भुट्टे देर से आते हैं तथा उनका आकार भी छोटा होता है।

    रोकथाम :- इसके रोकथाम के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 जी या फोरेट 10 जी बुवाई के समय 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ों में डालना चाहिए। यह कीटनाशक पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित होकर पौधों में पहुंचता है एवं ऐसे पौधों को खाने के बाद गिडारें मर जाती है।

    ज्वार का मिज :- यह देश के दक्षिणी राज्यों जैसे- महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में ज्वार की फसल को हानि पहुंचाने वाला मुख्य कीट है। यह कीट ज्वार में भुट्टे निकलने के समय फसल को नुकसान पहुंचाता है।

    रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए कार्बारिल 50 डब्ल्यू पी या कार्बारिल 3 डी कीटनाशक का ज्वार में भुट्टे निकलते समय 4 से 5 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए।

    ज्वार का माइट :- यह बहुत ही छोटा कीट होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्हीं के अन्दर रहकर पत्तियों से रस चूसता है। ग्रसित पत्ती लाल रंग की हो जाती हैं तथा बाद में सूख जाती है। रोकथाम :- इसकी रोकथाम अन्य कीटों की रोकथाम के साथ स्वतः ही हो जाती है।

    बालदार सुंडी :- यह कीट विभिन्न फसलों को नुकसान पहुंचाता है। इस कीट के शरीर पर घने बाल होने के कारण इस कीट को बालदार सुंडी कहा जाता है। इस कीट की छोटी-छोटी सूंडी पौधे की मुलायम पत्तियों को खा जाती है, जिससे पौधे की पत्तियों पर केवल शिरायें ही शेष बचती हैं।

    रोकथाम :- इस कीट की रोकथाम के लिए फोलीडोल 2 प्रतिशत धूल का 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या थायोडान (35 ई सी) का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

    माहू (एफिड) :- इस कीट के शिशु और वयस्क पौधों का रस चूसते रहते हैं, जिससे पौधों की पत्तियों के किनारे पर पीली-नीली धारियां दिखाई पड़ती है। इस कीट के प्रकोप से तरल द्रव बनने लगता है, जिससे फसल पर फंफूदी का आक्रमण होने लगता है तथा दाने की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

    रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टॉक्स 25 ई सी की एक लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

    पक्षी :- ज्वार की फसल को भुट्टे लगने के समय से लेकर कटाई तक चिड़ियों से भी बहुत नुकसान पहुंचता है। इसलिए फसल को नुकसान से बचाने के लिए चिड़ियों से रखवाली करना भी बहुत आवश्यक है।

    दाने का कंड (स्मट):- यह ज्वार का सबसे हानिकारक कवक जनित रोग है। इसका प्रकोप पौधों में भुट्टे निकलते समय होता है। यह मुख्यतः बीज द्वारा फैलता है। इस कवक के बीजाणु अंकुरण के समय जड़ों द्वारा पौधों में प्रवेश कर जाते हैं। पौधों में मुझे आने पर दानों की जगह कवक के काले बीजाणु भर जाते हैं। बीजाणु बाहर से एक कड़ी झिल्लीदार परत से ढके रहते हैं जिसके फटने पर वे बाहर आकर फैल जाते

    रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए बीज को किसी कवकनाशी दवा जैसे केप्टान या वीटावैक्स पावर से 25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बुवाई करें।

    अर्गट :- संकर ज्वार में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस बीमारी के बीजाणु हवा द्वारा फैलते हैं और बीमारी का प्रकोप फसल में फूल आने के समय होता है। पुष्प शाखा पर स्थित स्पाइकिल से हल्के गुलाबी रंग का गाढा व चिपचिपा शहद जैसा पदार्थ निकलता है, जो मनुष्य और पशुओं दोनों के लिए हानिकारक होता है।

    रोकथाम :- अर्गट रोग से ग्रसित भुट्टों को काटकर जला देना चाहिए। भुट्टों में दाना बनने की अवस्था पर थिरम 02 प्रतिशत के 2 से 3 छिड़काव करके रोग के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

    ज्वार का किट्ट :- यह भी एक कवक जनित रोग है, इस रोग का असर पहले पौधे की निचली पत्तियों पर दिखाई पड़ता है तथा बाद में ऊपर की पत्तियों पर भी फैल जाता है। पत्तियों पर लाल या बैंगनी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं एवं पत्तियां समय सेपहले ही सूख जाती हैं। ज्वार के किट एवं प्रबंधन से जुड़ी जानकारी के लिए आगे पढ़ें।

    रोकथाम :- किट्ट रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए तथा पौधों पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर डाइथेन एम-45 (62%) नामक कवकनाशी का 10 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करना चाहिए।

    जड़ विगलन :- ज्वार की फसल में यह रोग कवक द्वारा फैलता है। यह बीमारी मिटटी एवं बीज दोनों के द्वारा फैलती है परन्तु मिटटी द्वारा यह बीमारी मुख्य रूप से फैलती है। फसल में बीमारी के लक्षण बुवाई के 30 से 35 दिन बाद दिखाई देते हैं। रोगग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है पत्तियां मुड़ जाती हैं और पुरानी पत्तियों का ऊपरी भाग पीला पड़ जाता है। बीमारी का प्रकोप अधिक होने पर पौधों की संपूर्ण पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा पौधे मर जाते हैं।

    रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पूर्व किसी कवकनाशी रसायन जैसे थिरम या केप्टान 25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करना चाहिए एवं ज्वार की रोगरोधी प्रजातियां उगानी चाहिए।

  • लहसुन की खेती में लगते हैं ये तीन खतरनाक कीट

    लहसुन की खेती में लगते हैं ये तीन खतरनाक कीट

    लहसुन की खेती में खतरनाक कीट  -:

    किसान अगर ध्यान दें और थोड़ी सी सावधानी बरतें तो लहसुन की फसल को खतरनाक कीटों से बचाया जा सकता है. समय पर लक्षणों की पहचान कर ली जाए तो उनका नियंत्रण भी किया जा सकता है, आइए जानते हैं कैसे. देश में होने वाली मसाला की खेती में लहसुन एक प्रमुख फसल है. इसका इस्तेमाल सब्जियों के अलावा औषधियों में भी किया जाता है. भारतीय लहसुन की मांग दूसरे देशों में भी रहती है यही कारण है कि बड़ी संख्या में किसान इसकी खेती से जुड़े हुए हैं. वैसे तो ये मुनाफे की खेती है लेकिन कई बार इसमें लगने वाले कीट इसे नुकसान का सौदा बना देते हैं. किसान अगर ध्यान दें और थोड़ी सी सावधानी बरतें तो लहसुन की फसल को खतरनाक कीटों से बचाया जा सकता है. समय पर लक्षणों की पहचान कर ली जाए तो उनका नियंत्रण भी किया जा सकता है, आइए जानते हैं कैसे.

    थ्रिप्स : यह लहसुन की फसल को नुकसान पहुंचाने वाला सबसे अधिक हानिकारक कीट है. यह सा पीले रंग का होता है जो पत्तियों का रस चूसकर उनमे छोटे-छोटे सफेद धब्बे बना देता है. पत्तिया पीला होकर मुरझाने लगते हैं और पौधा सूख जाता है. फलस्वरूप फसल छोटी रह जाती है और उपज में भरी गिरावट आ जाती है. यह कीट फूल आने के समय अधिक नुकसान पहुंचाता है. जब थ्रिप्स की संख्या आर्थिक क्षति स्तर (30 थ्रिप्स प्रर्ति पौधे) से ऊपर हो जाये तभी कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए. उपयुक्त फसलचक्र व उन्नत तकनीक से खेती करें। नियंत्रण : जब थ्रिप्स की संख्या आर्थिक क्षति स्तर (30) थ्रिप्स प्रर्ति पौधे) से ऊपर हो जाए तब इमिडाक्लोप्रिड 5 मिली प्रति 15 लीटर पानी में मिला कीट छोटा कर छिड़काव करें या फिप्रोनिल 1 मिली प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें या स्पायनोसेद 100 मिली / हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. पीले / नीले रंग के स्टिकी पट्टिकाओं का प्रयोग भी लहसुन के खेत में करना थ्रिप्स की रोकथाम के लिए लाभकारी रहता है. माइट्स : इस कीट से ग्रसित पोधे की पत्तियां पूरी तरह खुल नहीं पाती व पूरा का पूरा पोधा जलेबी की तरह मुड़ जाता है. ग्रसित पत्तियों के किनारे पीले हो जाते हैं. लहसुन उथली जड़ वाली फसल है अतः पौधों की जड़ों में वायु संचार के लिए उथली निंदाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है. खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर पेंडामेथालीन का 3-4 ली. मात्रा का 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई से पहले छिड़काव करना चाहिए।

    नियंत्रण : लक्षण दिखाई देते ही ओमईट 1 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पानी में घोल कर छिड़काव करें। बैंगनी धब्बा : बैंगनी धब्बा रोग (पर्पिल ब्लाच) इस रोग के प्रभाव से प्रारम्भ में पत्तियों तथा उर्ध्व तने पर सफेद एवं अंदर की तरफ धब्बे बनते है, जिससे तना एवं पत्ती कमजोर होकर गिर जाती है. फरवरी एवं अप्रैल में इसका प्रक्रोप ज्यादा होता है।

    रोकथाम एवं नियंत्रण: 1. मैकोजेब+कार्बडिज़म 2.5 ग्राम दवा के सममिश्रण से प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करें. 2. मैकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बडिज़म 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से कवनाशी दवा का 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें. 3. रोग रोधी किस्म जैसे जी-50, जी-1, जी 323 लगाएं.

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  • जैविक खेती में स्यूडोमानास रोग की रोकथाम के कैसे करें ?

    जैविक खेती में स्यूडोमानास रोग की रोकथाम के कैसे करें ?

    जैविक खेती में स्यूडोमानास रोग की रोकथाम के कैसे करें ?

    स्यूडोमानास रोग की रोकथाम

    स्यूडोमानास रोग की रोकथाम :-फ्लोरेसेंस की 10 ग्राम मात्रा लेकर प्रति किलोग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। वहीं खड़ी फसल के लिए रोपाई के 45 दिनों बाद स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस 0.2 प्रतिशत मात्रा का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद 10 दिनों के अंतराल पर तीन बार इसका छिड़काव किया जाना चाहिए। रासायनिक कार्बेन्डाजिम एजॉक्सीस्ट्रोबिन की 500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर मात्रा लेकर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

    मैन डिक्लेरेशन – धान की फसल कटाई के पहले या बाद में अनाज विभिन्न जीवों से संक्रमित हो जाता है। जिससे अनाज के खराब होने की संभावना बढ़ जाती है। धान के दानों पर गहरे भूरे या काले धब्बे पड़ जाते हैं। यह धब्बे पीले, लाल, नारंगी या गुलाबी रंग के भी हो सकते हैं। जिससे फसल की गुणवत्ता घट जाती है।

    कैसे करें नियंत्रण– जैविक-धान की कटाई से पहले खेत का पानी पूरी तरह से निकाल देना चाहिए। इसके अलावा फसल को अच्छी तरह सुखाने के बाद ही स्टोरेज करना चाहिए।

    रासायनिक-फूल आने के समय कार्बन्डाजिम + मैंकोजेब (50-50न तिशत) की 0.2 मात्रा लेकर छिड़काव करना चाहिए।

    फाल्स स्मट-इस रोग के कारण फसल का दाना हरे रंग के बीजाणुओं में बदल जाता है। जिसके कारण उत्पादन कम हो जाता है।

    कैसे करें नियंत्रण-प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. की 500 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की मात्रा लेकर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव पौधे में बूट लीफ आने के बाद तथा दूसरा छिड़काव फूल आने के अन्य बाद करना चाहिए। फंगीसाइड रोग : स्प्रेम रॉट-इस रोग के कारण पत्तियों पर छोटे-छोट काले घाव बन जाते है जो बाद में सड़कर टूट जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए पत्तियां आने के समय 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर कार्बेन्डाजिम की मात्रा लेकर छिड़काव करें।

    फूट रॉट– नर्सरी में पौधे तैयार करते समय इस रोग के कारण धान के पौधे दुबले पतले और कमजोर रह जाते हैं। इसके लिए कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. की 2 ग्राम मात्रा से प्रति एक किलोग्राम बीज शोधित करना चाहिए।

  • मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म की जानकारी ।

    मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म की जानकारी ।

    मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म की जानकारी । 

    मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म

    कुल खर्चा, लाभ, हानि, बचाव के उपाय मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म की जानकारी ।

    आज हमारे देश की बढ़ती हुई आबादी के सामने पौष्टिक आहार, रोजगार एवं अर्थ व्यवस्था की भारी समस्या है। इन समसायो के लिए अनेकों प्रकार के प्रयास किए जा रहे है। उन्ही प्रयासों में एक मुर्गी पालन योजना को अपना ने का प्रयास किया जा रहा हैं। जिससे लोग – अपना स्वयं का मुर्गी पालन व्यावसाय शुरू कर सके।

    यह एक ऐसा धंधा है जिसे गरीब या अमीर कोई भी व्यक्ति छोटे या बड़े पैमाने पर गावो या शहरों में कम पूंजी, थोड़ी जमीन और कम मेहनत से कर सकते हैं। इसकी देख-रेख घर की औरते या बच्चे शौक से कर सकते है। इसके पालने से ताजा अंडे और मांस प्राप्त होते है जो पोषितिकता से भरपूर होते हैं। इसमें • प्रोटिन की मात्रा अधिक होती हैं जो हमारे लिए पोषक तत्व की कमी को पूरा करते हैं आज मंहगाई के दिनों में तथा मिलावट के समय में जहा कोई भी वस्तु शुद्ध नहीं मिलती है वहा अण्डा ही एक ऐसा प्रदार्थ है जिसमे मिलावट संभव नहीं है सस्ता भी हैं। यही कारण की इन दिनों अंडे और मांस की मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है। इसलिए मुर्गीपालन को व्यवसाय के रूप मैं अपनाकर यानी मुर्गी फार्म खोलकर अधिक से अधिक धन कमाया जा सकता है।

    मुर्गी पालन व्यवसाय :

    मुर्गी पालन पोल्ट्री फार्म

    मुर्गी पालन का धंधा कोई नया धंधा नहीं हैं। यह गावो और शहरों में पहले से चला आ रहा हैं। इसका धंधा विशेषकर सभी वर्गों के बीच फैला हुआ है। इसको लोग अंडे, मांस और मनोरंजन के लिए पालते हैं। इसके पालने में उन्हें कोई खर्च नही होता है क्योंकि ये मुर्गियां घर आंगन में बिखरी पड़ी अनाजों या अनाज की छाटन या फटकन या बेकार फिकर हुए • साग सब्जियों के टुकड़े या बचा खुचा भोजन या झूटन खाकर अपना पेट भर  लेती हैं। इससे अण्डा और मांस का उत्पादन होता है और मुर्गी पालकों को धन • की प्राप्ति हैं। परंतु उनकी मुर्गियां देशी होती हैं जो काम अंडे और मांस देती हैं। इससे उनकी आमदनी कम होती है। उन्हें देशी के बदले अच्छी नस्ल की अधिक अंडे मांस देने वाली मुर्गियों को पालना चाइए इससे उन्हें अधिक अंडे और मांस मिलगे जिसे बेचकर वे अपनी आमदनी बड़ा सकेगे ।