बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम
बाजरा पश्चिमी राजस्थान। में बोई जाने वाली प्रमुख फसल है। बाजरा भारत की प्रमुख फसलों में से एक है। जिसका उपयोग भारतीय लोग बहुत लम्बे समय से करते आ रहे है। इसकी खेती अफ्रीका और भारतीय महाद्वीप में बहुत समय पहले से की जा रही है। अधिक सूखा सहनशीलता उच्चे तापमान व अम्लीयता सहन के कारण बाजरा उन क्षेत्रों में भी आसानी से उगाया जा सकता है जहा मक्का या गेहूं नहीं उगाये जा सकते है। बाजरा बहुत रोगों से प्रभावित होता है जिसका समय पर उपचार कर फसल को नुकसान से बचाया जा सकता है। बाजरे की बिमारियां निम्न प्रकार से है।
बाजरे में लगने वाले प्रमुख रोग
1. तुलासिता व हरित बाली रोग: यह एक फफूंद जनित रोग है जिसको जोगिया, हरित बाली या कोडिया आदि नामों र से भी जाना जाता है। यह बाजरे की फसल का प्रमुख रोग है। तथा हमारे देष में लगभग सभी बाजरा उत्पादक राज्यों में पाया जाता है। इस रोग में सर्वप्रथम 15-20 दिन के उम्र के पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है। पत्तियों की नीचे की सतह पर कवक की सफेद वृद्धि दिखाई देती है। पत्तियों पर एक दुसरे के समानान्तर पीली धारियां बन जाती है। जो कि पत्तियों की सम्पूर्ण लम्बाई में फेल जाती है। रोग की उग्रता के साथ धारियां भूरे रंग की हो जाती है। तथा पत्तियां भूरी होकर सिरे से लम्बाई में चिथडों में फट जाती है। तथा सिकुड जाती है। इस रोग के प्रमुख लक्षण बाजरे की बाली पर दिखाई देते है। जिसमें दानों की जगह पूरी बाली या निचले भाग में छोटी ऐंठी हुई, बालीदार हरी पत्तियों जैसी संरचनाओं में परिवर्तित हो जाती है। इसी लक्षण की बजह से इस रोग को हरित बाली एवं कोडिया रोग से जाना जाता है।
रोग की रोकथाम : सामान्यत: रोग प्रतिरोधी किस्मों का ही बुवाई के लिए चयन करें जैसे आरसीबी 2 हाईब्रीड-आईसीएमएच-88088, एचबी-5, एनएचबी-10, एनएचबी-14 गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहियें। ▶ खेत मे रोगग्रस्त पौधे दिखाई देते ही उखाड़कर जला या गड्डा खादकर दबा देना चाहिए। फसल की अगेती बुवाई करनी चाहिए जिससे तुलासिता रोग का प्रकोप कम हो एवं फसल चक्र अपनाना चाहिए। खेत में गोबर की खाद व उर्वरकों का सही मात्रा मे प्रयोग करना चाहिए। फसल में रोग दिखाई देते ही बुवाई के 30 दिन बाद मैंन्कोजेब 2 किलोग्राम या रिडोमिल (मेटेलेक्सिल बी मैन्कोजेब) एक किलो हजार लीटर पानी प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें।
2. अरगट (चैप्पा रोग) : फफूंद जनित बाजरे का यह रोग फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है। यह रोग बालियों पर पुष्पन के समय दिखाई देते है यह। रोग सबसे पहले दानें बनने से पूर्व गुलाबी या ष्षहद जैसी छोटी-छोटी बुंदों के रूप मे दिखाई देता है। यह हनीड्यू या मधुबिन्दु अवस्था कहलाती है। फसल। पकने के साथ ही बाद में मधुरस गायाब हो जाता है। तथा बाली में दानों के स्थान पर छोटी बैंगनी गहरे भुरे रंग की अनियमित संरचना (स्कलेरोषिया) बन जाती है । जिन्हे अरगट या चेंम्यां रोग कहते है। फसल कटने के समय ये ! संरचनाये दानों के साथ या भूमि में मिल जाती है। व ये रोगाणु अगले वर्ष फसल में रोग उत्पन्न करते है।
रोग की रोकथाम : स्कलेरोषिया रहित साफ बीज बुवाई के लिये काम में लेवें। 20 प्रतिषत नमक के घोल में बीज को 5 मिनट तक डुबाना चाहिए एवं पानी में तैरते हुये स्कलेरोषिया को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए। डूबे बीजो। को साफपानी मे धोकर, छाया में सुखोकर बुवाई से पहले बीजों को थायरम 2 ग्राम प्रतिकिलों बीज दर से उपचारित कर बोना चाहिए। बाजरे की अगेती बुवाई करके रोग के प्रकोपों को कमी की जा सकती है। सिट्टे निकलते समय यदि आसमान में बादल छायें हो एवं हवा में नमी हो तो 2 किलो मेंकोजेब या 1 किलो कार्बनडेजिम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए ।। ▶ संकुल किस्में डब्ल्यूसीसी-75, आईसीटीसी 8230 आदि बोने से इस रोग की तीव्रता कम हो जाती है।
3. कंडवा (स्मट) रोग : यह रोग बाजरा बोये जोने वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। यह रोग दाना बनने के समय दिखाई देता है । इस रोग से ग्रस्त सिट्टे में दानों के स्थान पर चमकीले हरें या चॉकलेट रंग के दाने बन जाते है। जो कि सामान्य से दाने से डेढ से दो गुना बड़े होते है। तथा ये आकार में अण्डाकार से टोपाकार कंड सोरस में दिखाई देते है। कभी-कभी से सिट्टे की एक तरफ या सिट्टे की निचली सतह ही बनते है। व दूसरी तरफ स्वस्थ दानें होते है। तथा से सिट्टे में एक दो दाने से लेकर पूरे सिट्टे में फेले हो सकते है। रोग ग्रस्त दानों का हरा रंग धीरे-धीरे गहरे भूरे काले रंग में बदल जाता है। जिनके अन्दर काला रंग का चूर्ण होता है। जो कि रोगजनक के रोगाणु होते है।
रोग की रोकथाम – बुवाई के लिये साथ सुथरे व प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करना चाहिए। सिट्टे निकलते समय यदि आसमान में बादल छाये हो एवं हवा में नमी हो तो प्रोपेकोनाजोल (टिल्ट) या हेक्जाकोनाजोल 0.1 प्रतिषत का छिडकाव करने से रोग की तीव्रता कम हो जाती है। आईसीएमवी 155, आइसीटीपी 8203, डब्ल्यूसीसी-175, जैसी संकर किस्में बोनी चाहिए ।
4. रोली रोग : इस रोग से पत्तियों पर लाल भूरें रंग के छोटे-छोटे धब्बें बनते है। जो कि हाथ से रगड़ने पर हाथ पर लाल भूरा चूर्ण लग जाता हे। जो बाद में काले रंग के हो जाते है। यह रोग अधिक आद्रर्ता वाले क्षेत्रों में अधिक होता है।
रोग की रोकथाम – इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही फूफूंदनाषक मेन्कोजैब 2 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है। यदि आवष्यक हो तो 15 दिन मे छिड़काव दोबारा करें। 5. पत्ती धब्बाा (ब्लास्ट) रोग : इस रोग में पत्तियों में सामान्य रूप से छोट, नीले, जलसिक्तनाव जैसे भूरे लाल रंग के तथा मध्य वाला भाग शवेत धुसर अथवा राख जैसे रंग का होता हे। यह फूंदजनित रोग मौसम के अनुकुल होने पर पूरी पत्तियों पर फेल जाता है। तथा पत्तियों को समय से पहले झुलसा देता है। इस रोग का प्रकोप सामान्यतः बाजरा, उगाने वाले सभी क्षेत्रों में होता है।
रोकथामः इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही कार्बनडेजिम या हेक्जाकोनाजोल 0.05 प्रतिषत की दरे से छिड़काव करने से रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है।